शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

विदा vida – जी.ए. कुळकर्णी

विदा vida – जी.ए. कुळकर्णी

लेखक - जी.ए.कुलकर्णी
कालखंड - १९७० के आसपास
विदा
-- अनुवाद लीना मेहेंदले
सीमा लांघकर परली पार जाने की रितु आ गई है। लेकिन मुझे ले जाने के लिए  पताका से सजा रथ नहीं आएगा। मेरी विदा - वेला में तूती बजाई जाए या मेरे आगमन के उत्सव में नगाडे बजाए जायें ऐसी कोई भी भव्य उपलब्धि मेरी नहीं रही है। मेरे लगाए पौधे आकाशस्पर्शी देवदार वृक्ष नहीं बने, और मेरे शब्दों ने दिव्यता से नाता जोडने वाला कोई महाकाव्य नहीं रचा।
यहाँ मेरे लिए कोई महाद्वार नहीं खुलेगा। मेरा सारा प्रवास धूलभरे रास्ते पर खाली पाँवों से हुआ है। लेकिन मेरे लिए छोटा दरवाजा खोलने वाले द्वारपालों, यह ध्यान रहे कि मैं संपूर्ण दीन - हीन होकर तुम्हारे पास नही आया हूँ। सर्वत्र फैले हुए चौंधियाते सूर्य प्रकाश में क्षणैक ही सही, पर मेरा अपना तारा मैंने कहीं चमकाया है। उसके सुवर्ण - वैभव में मैंने देखी है समुद्र में डूबती हुई द्वारिका के मन में बसा एक गोकुल। आते हुए मेरे हाथ तुम्हें खाली दिखते हों पर वे उतने खाली भी नहीं। उनकी उंगलियों पर मारवा की गत उतर चुकी है। कभी उन उंगलियों से निवाला खाते हुए बच्चों ने खुशी की किलकारियाँ भरी हैं। लाल आँखों वाला एक पीला पंछी बड़े विश्र्वास और प्रेम से उन उंगलियों पर बैठा किया है। यहाँ आते हुए मैं एक क्षुद्र याचक नहीं हूँ। मेरे पग रखने भर जगह के लिए उचित मोल चुकाकर बिना किसी दीनता के मैं यहाँ पहुँचा हूँ।
इसी से कहता हूँ द्वारपालों, कि मेरे लिए दरवाजे के पट खोलते समय तुम्हारे व्यवहार में थोड़ी नम्रता हो। मेरे प्रति तुम्हारे शब्द आदरयुक्त हों। क्यों कि नंगे, धूलभरे किन्तु अपने ही दो पैरों से चलकर मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ।
हे कालपुरुष, अब मैं चला हूँ सीमा के उस पार, तो मुझे स्वच्छ, निरंजन मन से विदा देना। तुमने मुझसे मेरा बहुत कुछ छीना है। मेरी आशाएँ, मेरे सपने, मेरे प्रियतम व्यक्तियों को तुमने खींचकर मुझसे अलग कर दिया और निर्दयता पूर्वक मुझे अकिंचन कर दिया। इसलिये मैं कई बार तुम पर क्रोधित हुआ, तुम्हारा द्वेष करता रहा, यह सच है। लेकिन आज की घड़ी में मेरे प्रति कोई किन्तु तुम्हारे मन में न रखो। इस चलने की बेला में मेरे मन में कोई उद्वेग नहीं है। पहले भी मैंने तुम्हारा द्वेष निरर्थक ही किया, यह अनुभूति भी अब मुझे है।
मुझे जो सुख मिला वह तुम्हारे प्रेम के कारण नहीं था। उसी प्रकार जो यातनाएँ मुझे भोगनी पडीं वे भी तुम्हारे क्रोध के कारण नहीं थीं। तुम्हारे सम्मुख मैं असहाय था। पर तुम भी एक अविरत गति से घूमने वाले पहिए में बंधे, असहाय थे। उन घटनाओं के निर्माता तुम थे नहीं - वे बस घट गईं। हर पल अनेकानेक बुलबुले उठते हैं, और फूट जाते हैं। किन्तु उनके फूटने से प्रवाह खंडित नहीं होता।
और यह विशेष ध्यान देकर सुनो। जीवन इतने अनंत रूपों वाला है कि संपूर्णतया मेरे जैसा जीवनपट लेकर पहले भी कोई मनुष्य नहीं हुआ और आगे भी कोई नहीं होगा। इस दृष्टि से सोचो तो हरेक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अद्वितीय ही है।
मेरे जाने से एक समूचा, अद्वितीय भाव - विश्र्व पूरी तरह बिखर जानेवाला है। वह दुबारा फिर कभी जनम नही लेगा। इसी कारण, उसे विदा देते समय तुम कोई न्यूनता मत रखना। मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा मुझे मालूम नही। कदाचित मैं शून्य बनकर शून्य में मिल जाऊँगा। या कदाचित यहाँ से भी अधिक अर्थवाही और तर्क संगत वह जगह होगी। वहाँ तुम्हारी पहुँच नही होगी। या यूँ समझो कि तुम्हारे आने या न आने से कोई अन्तर नहीं पडेगा। मैं भी इस राह दुबारा कभी नहीं आऊँगा। एवंच, यह हमारी आखरी मुलाकात है।
चाहे जिस तरह भी हो, मेरे जीवन पर्यंत तुम मेरे सहप्रवासी बने रहे। अब हमारे रास्ते जुदा हो रहे हैं। ऐसे अंतिम क्षण में तुम मुक्त मन से मुझे जाने दो क्यों कि अब मैं चल पडा हूँ उस पार। तुम स्वच्छ, निरंजन मन से मुझे विदा दो।
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