शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

हिसाब hisab – जी.ए. कुळकर्णी

हिसाब hisab – जी.ए. कुळकर्णी

हिसाब

लेखक - जी.ए.कुलकर्णी
प्रकाशन - मराठवाडा मासिक
कालखंड - १९४० - ५०
अनुवाद - लीना मेहेंदले

     स्कूल से छुट्टी होते ही घर जाने के लिए सबसे छोटा रास्ता है मारुती के मंदिर वाला। बरसों  पहले म्युनिसिपालिटी ने कुछ रास्तों पर कांक्रीट बिछाई थी, उन्हीं में से एक यह भी है। लेकिन आजकल उस रास्ते जल्दी- जल्दी घर पहुँचने का आनंद कहीं गुम हो गया है। जैसे ही माधव घर पहुँच कर अपना बस्ता उतारता है, उसकी नजर टेबुल पर रख्खी दवाई की शीशी पर टिक जाती है। जब तक वह चाय पी ले, माँ शीशी लेकर पीछे खड़ी हो जाती है। नमक-मिर्च-तेल लगा चिऊडा कागज की एक पोटली में रख  उसकी जेब में ठूँसती है, और दूसरे हाथ से उसे शीशी पकडा देती है -'भाग कर जा, वरना डॉक्टर निकल जायेंगें।' और फिर उसी रास्ते से वापस आना है।
     दवाखाने में डॉक्टर छह बजे तक बैठते हैं। तब तक नहीं पहुँचो तो दूर बाजार वाले दवाखाने जाना पडता है। इसलिये रास्ते में ही चिऊडा फाँकते हुए चलना पडेगा। लेकिन बारामदे की मुंडेर पर बैठ कर खाने का मजा इसमें कहाँ। स्कूल की छुट्टी के बाद दिनभर धूप में तपी मुंडेर की फर्श पर पिछले तीन चार महिने में एक बार भी नहीं बैठ पाया है माधव !
     मारुती मंदिर के पास माधव आया।  वहीं दामले की दुकान थी। माधव पास से गुजरा तो दामले ने उसे आवाज दी। 'अरे, सामान ले जाते हुए तू हट्टा कट्टा होता है, और पैसे क्या तेरा बाप देगा?'
     माधव को ग्लानि हुई। सर झुकाए ही उसने कहा -' आबा तो बीमार ही चल रहें हैं, माँ से पूछ कर बताता हूँ।' दामले उतर कर नीचे गया। उसकी बडी बडी गलमूँछें थीं। और वह दारुबाज भी था ये तो सभी जानते थे - उसकी औरत ही सबको बताती थी। वह बोला - 'क्या खेल चला रखा है। कल सुबह नौ बजे तक पैसे दे देना। वरना इस रास्ते पर आया, तो टाँग तोड कर रख दूँगा।' फिर उसने खींचकर एक झापड माधव के मुँह पर मारा। माधव का बस्ता नीचे गिर गया और गाल जलने लगा। किसी तरह बस्ता उठाकर भीगी आँखों  से वह घर पहुँचा माँ राह देख रही थी। लेकिन उसका चेहरा देखकर चौंक गई। पूछा, क्या हुआ रे ?
     सारी बात सुनकर वह दो क्षण स्तब्ध रही। फिर उसने माधव के सामने चाय के साथ चिऊडा भी रखा। बोली - आज दवाखाना रहने दो। डॉक्टर आये थे, थोडी देर पहले। कल से दवाई बदल कर देने वाले हैं। मैं जरा बाहर से आती हूँ। तब तक तुम चिऊडा लेकर मुँडेर पर बैठना।
     फिर वह रसोईघर के बडे डिब्बों में हाथ डाल कर कुछ ढूँढनें लगी। एक डिब्बे से उसने बंद मुट्ठी निकाली और बाहर जाते हुए कहा - 'यहीं गाडगिलों के घर से आती हूँ।'
     माधव ने सामने पडे चाय-चिऊडे को देखा। कितने दिनों से वह मुँडेर पर बैठ नहीं पाया था। लेकिन आज जैसे भूख कहीं मर गई हो। खाली हाथ ही वह बाहर आकर बैठ गया। सामने ही गाडगिलों का घर था। उनके बडे आंगन में फूल फूल की डिजाइन वाले लकडी के बडे झूले लगे थे और उनकी  कुर्सियों पर भी नरम मुलायम गद्दे लगे हुए थे।
     थोडी देर में माँ वापस आई। चाय चिऊडा वैसा ही पडा देखकर उसने माधव को भरपूर नजर से देखा। लेकिन बोली कुछ नहीं। प्लेट से चाय के कप को ढँकते हुए बोली 'आबा अंदर सो रहे हैं। मुझे जरा मारुती मंदिर जाना है।'
     बाहर आकर उसने दरवाजे को कुंडी लगाई और माधव से बोली - तू भी चल मेरे साथ। उसके पैरों की तरफ देखते हुए माधव बोला - तुम्हारे पाँव की बिछिया तो रह गई।
     माँ कभी भी पाँव की उँगलियों में बिछिया पहने बगैर बाहर नही जाती थी। उसके साथ चलते हुए रास्ते की कांक्रीट पर बिछिया की खटखट सुनना माधव को अच्छा लगता था माँ ने फिर दरवाजे की कुंडी खोली, कोने में बने पूजाघर में रखी बिछिया पाँव की उंगलियों में पहनी और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोली - अब चलो।




     माँ दामले की दुकान पर आई। दामले नीचे झुककर साबुन का बक्सा खोल रहा था। माँ दुकान की सीढी चढी तो वह बक्सा छोडकर खडा हो गया। माँ तख्ती पर खडी थी फिर भी दामले उसके इतना ऊँचा दिखा रहा था।
     'दामले, तुम्हारे कितने पैसे देने हैं ?' माँ ने शांत स्वर में पूछा। 'पैसे देने में एक महीना और लगेगा, यह मैंने तुम्हे पिछले शनिवार को बताया था - और तुमने उसके लिए हाँ कहा था।'
     'कहा था तो क्या हुआ ? आदमी थोड़ा सा क्या झुका कि तुम उसे पूरा घेरने लगी।' दामले ने कहा - तुम्हारा बकाया है नब्बे रुपये। माँ ने नोटें निकालीं और एक बार गिन कर दामले को थमाईं। उसने गुर्राते हुए कहा - 'हिसाब चुकता हुआ। अब आगे से उधार नहीं मिलेगा।'
     'सारा हिसाब अभी नहीं चुका है।' माँ ने शांती से कहा - उसका हाथ तलवार की तरह उठा और एक भरपूर झापड दामले के गाल पर पडा। दामले विमूढ देखता ही रहा। रास्ते पर दो औरतें शाल लपेट कर मारुती मंदिर जा रहीं थीं, वे वहीं रुक गई। एक आदमी साईकिल से जा रहा था, वह भी उतर गया। राधाक्का के चीनी की पुडिया पर डोरी लपेटता हुआ सखाराम का हाथ रुक गया।
     'तूने एक चाँटा इसे मारा था ना? उसका हिसाब अब चुकता हुआ।' माँ ने बिजली सी कडकती आवाज में कहा। 'और एक बात और भी ध्यान में रखना। फिर कभी बच्चे के देह को उंगली भी छुआई, तो यहाँ मारुती के आंगन में ही तेरी लाश बिछा दूँगी।'
     उसी शांत भाव से माँ सीढ़ीयों से उतरी और माधव के कंधे पर हाथ रखकर उसे ढकेलते हुए चलने लगी। 'अब घर चल कर तेरी चाय गरम करती हूँ। फिर मुँडेर पर बैठकर चिऊडा खाना।'
     इसे पूरे अन्तराल को मनःचक्षुओं से बार बार देखकर माधव खुश होता रहा। माँ की बिछिया सड़क की कांक्रीट पर टक - टक बजती रही। उसका रौब माधव के नस - नस में उतरता गया।
-------------------------------------------------------------------------------



कोई टिप्पणी नहीं: