शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

मैं रास्ता -- full

मैं रास्ता
         मैं ...रस्ता...
    मैं सदियोसे  आता जाता रहा हूँ। कहाँ-कहाँ । कहाँ नहीं। कभी बलखाती नदी-नालों के संग। कभी उँची नीची पहाडियोंकि बीच। कभी गलियोमें - कहीं कूँचोंमे । कभी एक छोरके विशालकाय महलसे दूसरे छोरकी झोंपडी तक। हजारों सदियोसे मैंने कितनी कहानियाँ देखी। मानवमात्रके इतिहासके असंख्य पृष्ठ खोले मैं बैठा हूँ।  आते जाते असंख्य लोगोंने अपनी किलकारियोंसे, अपने उच्छावासोंसे,  मेरे धरातलपर और मेरे गहन अंतराल में कई कई निशान बनाये हैं। मैं इन्हें सहेज कर रखे जाता हूँ।
      इतनी कहानियाँ तुम्हारे लिये खोले हुए मैं बैठा हूँ। मैं, रास्ता। और रास्ता भी कई ऐरा गैरा नहीं- राजमार्ग क्रमांक- एक...। लेकिन तुम तो बस आते जाते ही रहे -मेरी तरह, मेरी ही साथ, मुझपरसेही गुजरते हुए -लेकिन मेरी कहानियोंसे अनजान। मैं तुम्हें नहीं पुकारता। तुम्हें अपने चिंतनमें खोये देख मैं विमुख हो जाता हूँ। तुम अपनी अन्वेषणा बेजान किताबोंमें क्यों करते हो? मैं हूँ चाहे निर्जीव, पर जीवन का जो विराट् स्पंदन मुझमें निरंतर है वह तुम्हें और कहाँ मिलेगा ? फिर भी मैं तुम्हें कभी नही पुकारता। केवल देखता हूँ और गुनता हूँ ।
               उसे भी मैं देख ही रहा हूँ। अभी मेरे लिये नया ही  है। उसे नई नौकरी लगी मालूम होती है। रोज वह अपने घर से पैदल निकलकर ऑफिस आता जाता है। पैदल चलना शायद उसकी हाँबी है। वह मुझे एक दुर्लभ मित्र प्रतीत होता है। चाहे जितनी  गप्पे लडाओं, सब सुनता है। चाहे मूक उसे निहारते जाओ, सब समझता है। उसके मनका कोई कोना ऐसा न होगा जहाँ मेरी अनुभूतियाँ नहीं पहुँचती हो। भीषण गर्मी और धूल भरे इन दिनोंमें पसीनोंसे लथपथ और थकानसे चूर, पर फिर भी निर्विकार वह, मुझे अपना ही प्रतिबिंब जान पडता है। जिन्दगीके दाग जो मेरे सीनेपर  आश्रय पाये फुटपाथपर बैठे इन तमाम लोगोंने खाये हैं, उन्हें जितनी गहराईसे मैं समझता हूँ उतनी गहराईसे वह भी समझता हैं।  मैं उसे देखकर गर्वित होता हूँ कि कोई तो समानुभूति, सहानुभूति रखनेवाला दोस्त है। उसकी आँखोंकी अनबुझ चमक मेरे लिये खिलौना हो गई कै। मन ही मन मैं सोचता जाता हूँ इन दागोंको देखनेपर उसके मनमें जब कोई प्रश्न उमडेगा  तो यह चमक कैसी  दिखेगी। वह प्रश्न  क्या होगा । क्या उसका उत्तर मैं दे सकूँगा?
       


   वह करीब तीन बजे ऑफिससे निकलता हैं -चिलचिलाती धूपमें -धूपसे बेखबर। यहाँ वहाँ चल रहे जीवनके व्यापार को पढता हुआ । मैं देखता हूँ -वह भी देखता हैं। 'जुगनू' आईस्क्रिमवाले को । अपनी बेजान चमकहीन आँखोंको दूर दूर कही शून्य में टिकाये आईस्क्रिमवाला एक बार हाँक लगाता हैं -- जुगुनू आईस्क्रिम... जुगुनू...... । उसके यंत्रचलित हाथ एक बार आईस्क्रिमके डिब्बेका ढक्कन खोलते है- फिर पटकते है। यंत्रचलित कंठ फिर पुकारता है ''जुगुनू.''.. उस आवाजकी गूँज इधर उधर टकराकर कानोंमें कैद हो जाती है- जैसे आइस्क्रिमके कप डिब्बेमें कैद हैं।
     
थोडी दूरपर बैठी एक औरत ककडियाँ बेचती हैं। जैसे-जैसे सूरज इधरसे उधर जाता हैं, वह भी पेडकी छाँवके साथ सरकती है।  फिर भी समय आखिर उसकी ककडियोंको सुखा ही देता है। वह उन्हें छीलकर पानीके छीटे दे- देकर या फिर ताजी ककडियोंके बीच रखकर उनके बासीपन को छिपा देती है। फिर भी ककडियोंपर पडती झुर्रियाँ चिन्हा जाती हैं, जैसे औरतके गालकी झुर्रियाँ।
      
वह देखता है- मैं भी देखता हूँ- यह सारे लोग असहाय, शिकायतहीन भाव लियें जी रहे हैं। जाने ऊपरवालेने उनके ललाट पर क्या लिखा है। वह भी नहीं पूछते। मसजिदकी सीढीपर बैठे भूरी दाढीवाले बूढे बाबाजीसे भी नहीं। बूढा बाबा रोज सीढीपर आकर बैठता है। उसके सामने पिंजरेमें एक रंगबेरंगी पंछीके पैर में नुपंर बजते हैं- रूनझून रूनझून । इधर उधर कागजकी पुडियाँ बिखरी पडी हैं। बाबाजी भविष्य बताता है। उसे तुम एक रुपया दो। पंछी चहचहाता हुआ, रूनझुनाता हुआ पिंजरेसे बाहर आयेगा और एक पुडिया उठा लेगा। उसी में कागजके टुकडेपर लिखा तुम्हारा अदृश्य तुम देख सकते हो।
        
सारा दिन सिर झुकाये बाबाजी ग्राहकोंकी राह देखता है। रातको खाली पेट पानी पीकर पड जाता है। कभी भी उसे ताजी ककडी या जुगुनू आईस्क्रिम खाने की इच्छा नहीं होती। किसी तरह  वह मूडी का एक ठोंगा और आधी गिलास चायही पा सके। लेकिन उसकी जेबमें सिक्के नही् होते। फिर वह पंछीका नुपूर ही बजाने लगता है- रूनझून-रूनझून।
        
''बाबाजी पंछी से अपना आजका भविष्य क्यों नहीं पूँछता'', उसकी चमकती आँखे  कभी शरारतसे पूछ देती है। लेकिन वह शरारत नहीं होती यह में जानता हूँ । इसलिए मेरी हजार -आँखे झुक जाती है।
     आज वैसी बात नही हैं। पंछी आज सारे पिंजरे छोडकर सदा के लिये उड गया है। आज बाबाजी ही पुडिया उठा रहा है। वह आता है। उसकी आँखे पूछती हैे -- ''और ,कल ....,? ''
     मैं - राजमार्ग क्रमांक एक- वहाँसे चुपचाप मुड गया हूँ।
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