शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

अहस्तांतरणीय ahastantaraneeya – नागनाथ कोत्तापल्ली

अहस्तांतरणीय ahastantaraneeya – नागनाथ कोत्तापल्ली
                        अहस्तांतरणीय 
        नित्य की भॉती कैलासनाथ  पार्वतीपती शिवशंभू जगन्माता तो पाश्वमे  ले नंदीपर  आरूढ  होकर  जगका    सुखदुख  देखने के हेतू आकाश  मार्गसे विचरण कर रहे थे। पूनम का चॉंद  प्रकाशमान था और पृथ्वीपर  भिन्न भिन्न वस्तूएँ  चमक चमक कर   शोभा  बढा रही थीं।  सहसा  जगन्माता का ध्यान  एक दृश्यकी  ओर आकर्षित  हुआ।  एक   भव्य  महल  की सीढींयोंपर एक मनुष्य  पडा था।  शायद बेहोश भी था। उसके  विशाल  भालप्रदेश पर दूज के चॉंद  की भॉंती   एक  रक्तमे सनी चंद्राकृति जखम थी जिसका रक्त देखा  और पूछ  बैठीं - " हे प्रभो!  आप तो  चराचर  के सारे  व्यवहारोंके ज्ञानी हैं।  बहुत  कुछ ज्ञान आपने मुझे  भी अवगत  कराया है।  अनेक  दुखियारोंके दर्द आपने  दूर किये हैं।  आप आशुतोष  एवं  औढरदानी हैं।  फिर  भला इस  संकटग्रस्त मानव  को इसके  दुखोंसे  मुक्ति देने  की बात  आपके मनमे क्यों  नही आई?  इसके ललाटकी  इस  बडी जखम के पीछे क्या रहस्य है?  कृपया यह रहस्य मुझे  बतायं और  हो सके  ते इसे दुखसे मुक्ति दिलायें। यही मेरी आपसे बिनती  है।
                जग्नमाता की इच्छा को कैसे ठुकराया जा सकता है? प्रभूने नंदी को आज्ञा  की नंदी ने  निःस्वर, शांतिसे उन्हे  महल के  पास उतारा प्रभूने  एक दृष्टि इस हतभागी  मनुष्य  पर डाली  थोडा  सा चिंतन  किया और  सुनाने लगे-
             " सुनो हे प्रिये! इस मनुष्य की यह रोचक और ज्ञानप्रदायिनी कखा मै तुम्हे  सुनाता हूँ। इसे  ध्यानपूर्वक सुनो।
            यूँ तो यह कथा बडी सरल है। सीधी है। सोचो तो  उससे  कुछ तात्पर्य भी निकलता है। पर इच्छा   न हो तो नही । जिसकी जैसी इच्छा  सोचो  तो यह वर्तमान की कथा है।  पर  इच्छा हो तो यह  भूतकालीन  भी हो  सकती  है। और इच्छा  हो तो  भविष्यकालीन भी।
             जैसा कि हर कथा मे होता है, एक नगरी थी, जिसमे  एक राजा था राजा बडा  ही संपन्न और  धार्मिक था । राज्य व्यवस्था उचित ढंगसे चल रही थी। नगरमें उपवन थे, उद्यान थे , दुकाने थी, व्यापार था।  मोती-माणिक से लेकर  दूध, अनाज, कपडे , सुगंधियाँ इत्यादिसं बाजार भरे पूरे थे। गरीबोंको यह वस्तूएँ मुहैय्या थीं या नही , यह हम नही कहेंगे क्यों कि किसी कथामें गरीबोंके विषयमें  कुछ नही कहा जाता है।
                 हर जगह अमन चैन था।
                 लेकिन राजाने विचार किया- क्या केवल खा- पी  लेना ही जीवन  है?  अच्छे  जीवन  के लिये   कला  होनी  चाहिये। संगित चाहिये और शिक्षा भी चाहीये । उसने  अपने प्रधानों  को बुलवाया विचार गोष्टी  हुई बडा विचार हुआ फिर  सबने सुझाया  कि  महाराज, राज्य विद्यापीठ नही है। और सब कुछ है वन  है। उपवन है।  दुकाने  है। समृद्धी है लोक है। पैसा है सुख है। सुख है नही हे केवल विद्यापीठ फिर राजाने  घोषणा की. इस राज्यमे एक एक विद्यापीठ होगा।
                        फिर एक जगह  निश्चित हुई। खूब लंबी चैडी जगह करीब पांच - छ: सौ एकर!  उसपर इमारतें बनीं चोसठ कलाओं  के लिये चौसठ इमारते बनीं  कुलगुरू के लिये मंहल बना लेकिन विद्यालय   शुरू  कैसे हो? एक कुलगुरू चाहिये।
                फिर राजने अपने  प्रधानोंसे कहा कि वे कुलगुरू की खोज करें  प्रधानें  ने  दूतोंको आठों दिशाओं दौडाया संदेश दिये  गये  कि अमुक  अमुक विश्वविद्यालय के लिये कुलगुरू चाहिये । कुलगुरू कैसा हो?  वह ज्ञानी हो। कर्तव्य  तत्पर हो। राजा की आज्ञा का पालन करनेवाला हो। इस प्रकार सर्वगुण संपन्न होने के   बाद यदि संभव हो, तो वह चरित्रवान भी हो।
              दूत देश -विदेश गये। गाँव-गाँव में घोषणाएँ हुई अमुक अमुक  नगर को कुलगुरू चाहिये। कुरृलगुरू ज्ञानी  हो.  विव्दान हो, कर्तव्य त्तपर हो। राजाकी आज्ञा का पालन  करनेवाला हो। और  हो सके तो चरित्रवान  बी हो। लोगोंने घोषणा सुनी  और  सोचमे पड गये । कहाँ  मिल पायेगा राजाको ऐसा कुलगुरू?
                खोज आरंभ  हुई। ज्ञानी   मनुष्य की खोज करते -करते आखिर दूतोको एक ऐसे ज्ञानी मनुष्य  का पता लगा ही गया। दूतों ने उसे निमंत्रण दिया। महाशय आप आयें । हमारे साथ महाराजा के पास  चले । उन्हे कुलगुरू  पदके  लिये एक   लायक  व्यक्ति की  तलाश है।
                    ज्ञानी व्यक्ती ज्ञानी था। अनासाय किसी के निमंत्रण पर जाना ठीक नही समझाता था।  सिक्का  ठोक  -बजाकर लेने वालोंमे से था। उसने कहा मैं  चलता हूँ। राजाज्ञा को कौन टाल सकता है?  लेकिन यह तो बताओ कि तुम्हारे महाराज  को कैसा कुलगुरू  चाहिये?
             दूतोंने कहाँ-हमे  ज्ञानी कुलगुरू चाहिये। सो ज्ञानी  तो मैं हूँ ही । और क्या चाहिये?  दूतोंनो  कहा  वह  विद्वान भी हो. महाशय  बोले, तो ठिक है, मेरे जितना विद्वान  तुम्हे कहा मिलेगा?  और क्या अपेक्षा है?  महाशय वह  कार्यत्तपर  भी हो, सो  ठीक  है। मेरी  कार्यतत्परता के सबूत   इस गॉंव मे जगह  बिखरे  पडे हैं। समय  कम है वरना तुम्हे  दिखाने ले चलता. दूतोंने कहा,  इसकी  गरज नही है श्रीमान। आपको देखते  ही हमे  साक्षात्कार  हो गया  कि आप  कार्यतत्पर है।  लोकिन फिर  भी हमारे महाराज की एक  शर्त  बाकी रह जाती  है;  दूतोंने अपनी  कमर से बंधी रेशमी  थैली  खोलकर उसमें  लिखित गुण  सूचि को पढकर बताया।
              अब और कोन सा गुण हो?  क्या शर्त  है?  महाशय ने प्रश्नवाचक मुद्रा से दुतोंको देखा उनकी  ऑंखोंमें
एक  कठोर चमक उभर आई थी। दूतोम को लगा कि बना बनाया काम बिगड रहा है।  लगता है कि यह  अच्छा गुणसंपन्न कुलगुरू के पद का व्यक्ति यथासंभव चरित्रसंपन्न भी हो बस। कुलगुरू ने निश्चितता की सांस ली । ओ:  यथासंभव ही  कहा है न?  फिर कोई परेशानी  नही  चलो  चलते है।
                दूत खुश हूए। नगरी के विद्यापीठ को सकुलगुरू मिल गया। उन्हे रथमे बैठाकर सम्मानपूर्वक महाराजाके सम्मुख  लाया गया. राजासे आशिर्वाद प्राप्तकर कुलगुरूने अपना पद संभाला.
                हर ओर  आनंद छा गया कि विद्यापीठको कुसगुरू मिल गया. लोगोने मिठाइयाँ बाँटी लेकिन  विद्यापीठके  कर्मचारियोंने दिनमे आनंद समारोह  करनेसे मना कर दिया। कहा कि हम अपना आनंद रात्रिमें व्यक्त  करना चाहते है।  कुलगुरूको भी बात समझने आई। जँची कहा यह ठिक है। आनंद  की अभिव्यक्ति रात्रीमें ही ठीक से होती है। मेरे  कर्मचारियों, जाओ रात आनंद , उत्सव से व्यतीत करो । यदि कोई कमी  पड रही  हो तो मुझे बताना कर्मचारियों ने कहा नही साहब! आप चिन्ता न करें । हमारी  व्यवस्था मे कोई कमी नही रहेगी। कई स्नातक है।  उनके बीसियों काम अडे हुए हैं। उनमे  हमने कह रखा  है कि कुलगुरू  के आनेपर  तुम्हारे  काम हो  जायेंगे। इसपर  कुलगुरू ने पसंदगी  में गर्दन हिलाई- ठिक  ठिक   आप लोग बहुत बुद्धिमान हो।  आपको होते  हुए मुझे कोई विद्यापीठ  की कोई चिंता नही रहेगी। अब  आप समय नष्ट ना किजिये। जाईये, रातभर  खुशी मनाइये। सारे  कर्मचारी आनंद से रवाना हुए। हँसते- खेलते रवाना हुए। कहने  लगे ऐसा कुलगुरू  तो कभी हुआ नही। हमारा अहो भाग्य जो हमे ऐसा कुलगुरू मिला।
                 कर्मचारीण तो चले गये।  लेकिन शिक्षक वर्ग अभी  रूका हुआ था।  कर्मचारी जिस तरह खुलकर  बोल सकते थे उस खुलेपन  से वे  नही बोल सकते थे। आखिर शिक्षक थे। कुछ मर्यादाएँ तो निभानी पडती हैं।   कमसे कम  मर्यादापालन का दिखावा तो करना ही पडता है। सो  वे वैसे ही खडे  रहे। चुपचाप  लेकिन कुलगुरू थे ज्ञानी, बुद्धीमान कर्तव्यतत्पर और यथासंभव चरित्रवान थी। शिक्षकोंकी अडचन  को भाँप गये। बोले, मेरे शिक्षक मित्रों, हमें  बहुत से काम करने हैं। ज्ञानदान करना हैं।  लेकिन यह सब करने के लिये जीनव मे आराम का बी महत्व है।  मनोरंजनसेभी आराम मिलता है।   इसलिये  अब रात को कहीं  और जाने की आवश्यकता नही यहीं या जाईये. दो चार घडियाँ सहवास में गुजरेंगी लेकिन  एक शर्त है।   प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनसाथी को संग ले  आयेगा. शिक्षक  हो तो वह  अपनी  धर्मपत्नी को संग ले आये और यदि शिक्षिका हो तो वह अपने  धर्मपती को लेकर आये.  शिक्षक गण खुश  हुए.  कहने लगा हमारा  अहो भाग्य  जो हमे  ऐसा कुलगुरू मिला.
           रात्रिके आनंदोत्सव के लिये सारा शिक्षक  वृंद आया.  कुलगुरूके साथ संबंध बढाना ही चाहिये। सैकडों  काम  होते हैं।  प्रमोशन होते है। फॉरेन ट्रिप होती हैं। और भी  सुविधाएं होती हैं। कभी  अडचन  के समय  ऐसे  संबंध का आते है। कल बच्चों के नौकरियों  का सवाल उठेगा  और फिर  कुलगुरू  के शब्द का मान  तो होना ही चाहिये. दोन चार  मुर्ख  शिक्षक थे . उन्हे छोड कर बाकी सब आये.
                रात गुजरने लगी.  आनंदोत्सव मे आनंद बढ चढ कर बहने लगा.उत्सव मे कुलगुरू की पत्नी भी थी।  और कई शिक्षिकाएँ थी.  कुछ शिक्षकोंकी पत्नियाँ थी।  कुलगुरू पत्निने स्वयं आगे बढकर  स्त्रियोंकी  सारी व्यवस्था  संभाली। वे भी पतिपरायण थी। पति की उन्नतिमे अपना समाधान  पाती थी।  आध्यात्मिक भी थी पति के सुख  चैन के लिये गाहे बगाहे हे तीर्थयात्रा पर भी हो लेती थी कुलगुरू की ओर  से उन्हे कोई रोक टोक नही थी. सो वे स्त्रियों की व्यवस्था देखने लगी. कुसगुरू पुरूषोंकी  आनंद अपनी   चरम सीमा पर था. कुलगुरू को केवल संभाषण मे रस नही थी.  आखिर इन्सान  एक दुसरे के करीब  न आपाया  तो संभाषण   का क्या महत्व?  सब जनें करीब आयेंगे तो विद्यापीठ का काम चलेगा. नाम बढेगा सो वे सबके  करीब जाने लगे.
              जैसा की सभी मौकोंपर होता है, इसबार भा हुआ. यानी कुछ लोग कुलगुरू के बडे ही करीबी हो गये. उन्हे क्या चाहिये, क्या नही, पुछने लगे.  किसने कहा कि आप आये हमारा सौभाग्य. किसने कहा अब विद्यापाठमे किसी बात की कमी नही रहेगी, किसीने कहा महाराज आधी रातको भी पुकारेंगे तो हम  हाजिर होंगे. आपक् हर  शब्द  के अनुसार  कार्य होगा. कुछ सेवा को मौका  हमे देकर  तो देखिए. कुलगुरू बोले ठीक है. मैं याद रख्खूंगा। वक्त  आने पर  आपको बुलाउंगा. क्या नाम बताया आपने? एकने नाम बताया गणेश शिंदे. कुलगुरू ने कहा अच्छा। फिर दुसरेने नाम बताया पंडित . कुलगुरूने कहा बदुत अच्छा.
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        रात बढने लगी. पूनमका चॉंद आकाशमें  माथे पर पहुँच गया: एक समॉ बंध गया.  चारों  ओर  रातरानी का गंध छा गया. हवा  डोलती हुई आई. पेड डोलने लगे.  फूल-पत्ते डोलने लगे. कुलगुरूने  पैनी  दृष्टीसे देखा. हर ओर आनंदकी  बाढ आई हुई थी.  लेकीन एक कोनेमे एक जोडा  चुपचाप बैठा था।  एक  कोई प्रौढ सज्जन साथ मे  उनकी सुंदर धर्मपत्नी भी थी.   शायद जाना चाहते थे लेकीन  संकोशवश बैठे थे की महफिलसे कैसे जायें. दोनोंके चेहरे गंभीर थे . कुलगुरू को जॅचा नही. आनंदके लिये सबको  बुलाया. फिर  ये इतने गंभीर क्यो?  क्या कोई समस्या है?  चिन्ता है?  कुलगुरू का मन व्याकुल होकर छटपटाने लगा.  इनके लिये कुछ करना चाहिये.  उन्होंनो शिंदे और पंडित को बुला भे जा.  पूछा क्या हुआ है उन दोनों को?  क्यॉ इस  तरह लंबा चेहरा किये बैठे  है?  शिंदेने कुलगुरू की उंगली की दिशामें देखा. पंडितने  भी देखा वही न महाराज वह प्रौढ पुरूष और वह सुंदर स्त्री. कुलगुरू ने कहा- हॉँ वहा. क्या समस्या है उनको? क्यों  इतने  गंभीर है उनके चेहरे?
              तब शिंदे  बोलने लगे. कोई खास बात नही हे महाराज! वे हमेशा वैसे ही गंभीर  रहते है. खासकर वह प्रौढ शिक्षक. लेकिन आपके भाषण  लिख देने के लिये आदमी बडे काम का है. उसकी घर्म पत्नी पढी लिखी है. फिलहाल घर का कामकाज देखती है.  नौकरी नही करती. कुलगुरू ने कहा,  तो हम  उन्हें  नोकरी भी  लगवा देंगे.  इसपर  पंडित ने कहा-नही महाराज,  उन्हें  नौकरी की गरज नही. बडी कर्मकुशल महिला है. घर  बैठे बैठे  गृह उद्योग भी चलाही है. कैसा गृह उद्योग ?  महाराज,  विद्यापीठ में स्नातकोपरांत पढाई के लिये विद्यार्थी  आते रहते है. उन्हे ग्रंथ लेखन करना पडता है। सो देवीजी खाना पकाने -खा चुकने  बाद बचे हुए समय मे  ग्रंथ -लेखन करती है. एक  ही समय उनके पास कई  ग्रंथ पूर्ण-अपूर्ण अवस्थामें  पाये जा सकते है. विद्यार्थी अपने  स्वभाव के अनुसार विषय का चयन  कर सकता है.
                       कुलगुरू ने कहा- यह तो बडा ही अच्छा गृह उद्योग है. शिंदे ने कहा, पैसे भी अच्छे  मिल जाते है.  कुलगुरू  ने कहा, यह तो और भी  अच्छी  बात है. ऐसी  ही उद्यमी  स्त्रियोंकी देशको आवश्यकता है. चलिये, चलकर उनको परिचय बढाते है.
                        कुलगुरू चल  दिये.  उनके पीछे  शिंदे चलने लगे, उनके पीछे पंडित  चलने लगे. तीनों चलकर प्रौढ  सज्जन के  पास पहुँचे. उनका नाम  था दिक्षित.  किसी दूर प्रांत मे  उनका घर पडा था। यहाँ  नौकरी के हेतू  आये थे. पास- पडौस के प्रांतोंमे उनके  रिश्तेदार न थे. खासकर नगरी में तो कोई नही कुलगुरू ने  कहा कोई चिंता नही. मैं तो हूँ फिरये  शिंदे है. ये पंडित है. सारे अपने  ही आदमी  हैं. आते रहिये हमारे यहाँ  आप भी  मिसेस दीक्षीत. हमारी धर्मपत्नी  के यहाँ  आती जाती रहीये. सुनकर दीक्षीत को बडा संतोष हुआ.  मिसेस दीक्षीत को अधिक संतोष हुआ. अब अपना गृह उद्योग अच्छी तरह चल निकलेगा. कोई अडचन  नही आयेगी। यह सब  सोच कर दीक्षीत  पत्नी सुखी  भये.  उन्हे  देखकर कुलगुरू  सुखी  भये. शिंदे सुखी भये. पंडित सुखी भये. आकाश के तारे  सुखी भये. फूल और पेड सुखी  भये. सुख आसमान को छुने लगा.---
           समय बीतता गया.  विद्यापीठ  कीर्ती फैलने  लगी.  स्नातकों की संख्या बढने  लगी.  राजाको परम  संतोष हुआ. विद्यापीठ आरंभ करने  के लिये जो यंत्रणा की थी सब सार्थक हुई " ज्ञानदान का  कर्म महान पुण्याकर्म है"  राजाने  सबसे कह. सुनकर प्रधानोंने  गर्दन हिलाई. प्रधानोंने हिलाई तो प्रथम श्रेणी के अधिकारियों ने भी  हिलाई. फिर  व्दितीय श्रेणी  के, फिर तृतीय श्रेणी के बाबुओंकी गर्दनें  डोलने लगी तो जनसामान्य को पता चला.  फिर उनकी भी गर्दंने डोलने  लगी. यों विद्यापीठ चल निकलने  का संतोष चारों दिशाओं में फैल गया.
                   अब कुलगुरू का काम भा बढ गया. विद्यापीठ मे सौ तरहकी समस्याएँ. कभी  कर्मचारीयोंकी मांगे. तो कभी  शिक्षकों की. कभी विद्यार्थीयों की .कुलगुरू भी मगन थे.  कभी  इसको बढौती दे दी . कभी  उसको डॉंट दिया तो  भी फटकारा दिया.  दीक्षितो उन्होंनो  प्रमोशन  दे डाला . दीक्षीत खुश ! दीक्षीताईन  भी खुश , कुलगुरू भी खुश , फिर कुलगुरू  ने  दीक्षीताईन  से कहा - देवीजी आप कितनी चतूर है. कुशल हैं. उद्यमी हैं,लेकीन सब घरकी चार दिवारी के अंगर इससे राष्ट्र को क्या फायदा? आपको  भी कहाँ प्राप्त होती हैं?  आपका नाम तक ग्रंथोमें  नही लिख जाता है।  तो आप   जैसी  पढी लिखी सुंदर  देवीयोंके लिये  विद्यापीठ ही उपयुक्त  स्थान है,  दीक्षीत स्त्री ने कहा आप की गुण ग्राहकता है. पर मैं  जहाँ  हूँ , खुश हूँ.  आप कुछ करना चाहते हैं तो हमारे " इनके" लिये  कीजिये.  कुलगुरू  ने कहा वह तो हम  करेंगें ही. फिर शिंदेने  आग्रह किया. फिर एक बार  सोच  लिजिये . पंडित ने भी कहा, जब तक अपने  कुलगुरू हैं काम करा  लीजिये . आपको तो पता ही है कि नलीनी देवी का किस  तरह  कुलगुरू ने उध्दार किया. हाँ, हाँ पता है,  दीक्षीत चापलूसी से हँसे. कुलगुरू भी मंद मंद हंसे. कुलगुरू को देखकर  शिंदे की हंसी और भी मंद हो गई  और    भी मंद हो गई और पंडित की हंसी तो सिमटो हुए होठोके अंदर तक ही रह गई.
              विद्यापीठ मे नलीनी देवी का उद्धार भली भाँति हुआ था.   कुलगुरू ने ही किया. यह कोई रहस्य कथा या गोपनीय फाईल नही है. सीधी  सी कथा है जिसे सब जानते -सुनते है. कुलगुरू बडेही कृपालू स्वभाव के है. हर अडचण पर   दौड कर पहुंचने  वाले. दुकरोंके गुणोंको पहचानकर  बढावा देने वाले.  किसी  उत्सव मे कुलगुरू और नलीनी देवी का परीचय हुआ, उनकी विव्दत्ता से कुलगुरू प्रभावीत हुए. गुणोंपक प्रेम   करना उनका  स्वभाव ही नही घर्म  भी था.  कहा,  आपका विद्यापीठ  मे स्वागत है.  कभी भी आ जाइये.  विद्यापीठ स्वयं  आपको निमंत्रित कर रहा है नलीनी देवी  खिल उठी .उनके  मनमे  भी ये  बातें थी.  लेकीन आपत्ती पतीकी ओर से थी .वह एक  अदना अफसर था. पत्नी और बच्चोंसे प्रेम भी करता था. नही  चाहता था कि पत्नी नौकरी करे और बच्चों के पालनमें कोई कमी रह जाये.  शादीके  समय  ही  उसने  यह शर्त  मंजूर करवाई  थी.  सो अब  नलिनीदेवी को पर फैलानेके लिये एक  आसमान कुलगुरू दे सकते हैं,  तब वह क्यों  एक  पिंजरे मे कैद रहकर अपने  उडने के सुख को खो रही हैं?  फिर भी  निःसंदेह पंछी किसी दिन  पिंजरा  छोड ही  देगा. खुले  आकाशमे  पंख पसारा कर स्वतंत्रता को अपनायोगा. नलीनीदेवी मंत्रमुग्ध सुनती रहीं .बैठे बैठे उन्हें  लगा मानों वे बदल रही हैं उनका मानवी  शरीर गल रहा है. वहाँ एक पंछी का शरीर है जिसमे  पंख  उग  लगा है. उन्होंने पंख फडफडाये पिंजरे के छोड आसमान मे उड चलीं .इस प्रकार उनका उव्दार हुआ  विकास हुआ. और भी बहुत कुछ हुआ.
                 इस प्रकार विद्यापीठने  उव्दार  की कई योजनाएँ बनाई. इसके  लिये कुलगुरू ने बडा परिश्रम किया.  शिंदे ने भी परिश्रम किया और पंडित ने भी . सब कुछ ढंगसे चल रहा था.  विद्यार्थी कक्षा. में  बैठते थे.  जो नही  बैठते थे उन्हें  विद्यापीठ से कोई शिकायत नही थी. सब निश्चित थे .यहा तक की कुलगुरू की पत्नी नियमित  रूपसे तीर्थयात्रापर जाती रहती. उनसे भी किसीको शिकायत नही थी. कुलगुरू को तो बिलकुल ही नही.
            उन्हें किसीसे शिकायत  न थी न किसीको उनसे. लेकीन  एक दुख फिर भी उन्हे खल रहा था. विद्यापीठकी आध्यात्मिक प्रगती  नही हो रही थी. अध्यात्म के बगैर सब व्यर्थ हो रहा था. वह कीर्ती, वह अच्छा खास नाम कुछ भी नही सुहाता था. फिर कुलगुरूने सारे शिक्षिकों को बुलाया. विचार और मंत्रणा शुरू हुई. किसीने कुछ कहा तो किसीने कुछ अन्तमें  युनियन लीडर ने सुझाव दिया कि विद्यापीठमें  हर  शुक्रवार को भजन का कार्यक्रम हो. और यदि  संभव हो तो कुलगुरू के महल के सामनेवाले विशाल बगीचे में ही हो. प्रस्ताव अच्छा था. शिंदेने हामी भरी. पंडित ने सहमति जताई. कुलगुरूने स्मित हंसी के साथ स्वीकार किया  इस प्रकार विद्यापीठमे अध्यात्म भी समाविष्ट हो गया.
                     कुलगुरू के मनमे  एक सुक्ष्म असंतोष फिर भी बचा था. हालांकि दीक्षीताईन हर शुक्रवार  के भजनमे  शामिल होती थी. फिर भी आज तक  राष्ट्रको उनका कोई उपयोग  नही हो पाया था. इतनी बुद्धीमति स्त्री. गृह उद्योग चलाने मे कुशल. लेकीन उनके गुण  दुनियाँ के सामने नही आ पाते थे.  क्या ही शर्मनाक बात थी. क्या थी स्त्रीजाति की दुर्गति!  क्या था स्त्रीजाति का अपमान! उन्हें ही कुछ करना  होगा.  विद्यापीठके  लिये, राष्ट्रके लिये लेकीन  करें तो कैसे  करें? दीक्षिताईन अपनी जिदसे टससे मस  नही हो रही थीं दीक्षितने  कहा, आप  क्या कीजियेगा? उसकी इच्छाके बगैर  तो आप राष्ट्रकी  प्रगती नही कर सकते . उन्हीकी मन  मर्जीसे  करिये जो करना है सो. कुलगुरू को यह बात भी ठीक लगी.
                   तब उन्होंने  शिंदेको बुलावा भेजा. पंडितको बुला भेजा. कहा मुझे बडी चिंता  हो रही है. इतनी  बुद्धीमान महिला! किस तरह उनकी योग्यता का अपव्यय हो रहा है.  शिंदेने कहा, जरा धीरेसे काम लें  आज नही तो  कल, उनके ज्ञानका उपयोग राष्ट्रको होकर रहेगा. कुलगुरू ने कहा सो तो ठीक. लेकीन वृथा ही कालक्षय हो रहा है. जितना कालक्षय अधिक उतना समझो राष्ट्र का नुकसान .यह बात भा सही थी अब क्या किया जाय? अचानक शिंदेको उपाय सूझा बोले महाराज, दीक्षित पत्नी  पत्नी जो राष्ट्र के कार्यमे टाल मटोल कर रही है.  उसका असली कारण  कुछ और ही क्या  कारण है,  कुलगुरू  ने आश्चर्य से पूछा    पंडित भी चौकन्ना होकर देखने लगे.  शिंदे अचानक महान बने जा रहे थे. वैसे भी उनकी ख्याति संशोधक की ही थी. चौकन्ना  होकर देखने लगे. शिंदे अचानक महान बने जा रहे थे. वैसे भी उनकी ख्याति की ही थी. कौनसा संशोधन किया था उनहोंने?
               शिंदे समझाने लगे दीक्षित पत्नी राष्ट्रकार्यके लिये मुकर रही थी.  इसका कारण  वो खुद नही थी.  पंडित ने पूछा ,फिर कौन कारण था? विजय-भावसों पंडित को देखने हुए शिंदेने कहा, महाराज, देवीजी के मनपर दीक्षितका प्रभाव है. एक आच्छादन है. आवरण  को दूर कीजिए, फिर प्रकाशमय हो जायेगा. वस्तूएँ स्पष्ट  दीखेंगी.
                   अब कुलगुरूके मस्तिष्क मे प्रकाश उदय हुआ। पंडित ईर्ष्यासे जल भुन गया. अब कुछ बोलना ही पडेगा. कहा ,महाराज शिंदे ठिकही कहता है. आवरणोंको दूर करना पडेगा. तभी राष्ट्र का कार्य हो सकेगा।   तभी दिक्षित पत्नी राष्ट्रकार्य के लिये राजी होंगी. यह कैसे  किया जाय.  लेकिन  तभी   कुछ ऐसी  बाते हुई जिनसे कुलगुरू का नाम सरल हो गया.
                बात यों हुई  कि पडोसी प्रांत  के राजाने  भी सोचा कि वह अपने  प्रांतमे एक विद्यापीठ  खोले.  उसने  कई   विव्दान  और तज्ञ  व्यक्तियों को  चर्चा हेतू बुलावा भेजा. अब इस  चर्चामें  अपने विद्यापीठ  का प्रतीनीधी न  हो  यह तो बडी शर्मकी बात होगी.  आखिर ज्ञानकी वृद्धी कैसे होती है?  निरीक्षण  और  व्यासंगसे तो होती है. पर  साथमे  चर्चा, वाद  वादविवाद, खंडनमंडन भी होना चाहिये. पुराने  कालमें  यह होता था. दुख की बात हैं कि आधुनिक कालमें यह लुप्त  हो रहा है. इसे पुनः प्रस्थापित करना होगा. कुलगुरू ने  अपनी चिंता शिंदे और  पंडितसे  कही मन की  कुछ और चिंताएँ  भी सुनाई .उपाय की योजना भी सुनाई. शिंदे ने सुनकर  वाहवाही की. पंडित ने भी संमति दर्शाई.
               फिर दीक्षित को बुलाया. उन्हें आज घर पहुँचने की जल्ही थी. एक स्नातका घर आनेवाली थी  जिसके ग्रंथ रचने के विषय मे तय होना था. लेकिन कुलगुरू के  सामने क्या बोले? चूप रहे कुलगुरू ने  समझाया. पडोसी प्रांतमे चर्चा हैं.  आप इस विद्यापीठ का प्रतीनिधीत्व कीजिये. अपनी बुद्धीमानी की वह  चमक दिखाइये कि सब  प्रभावित हों  भविष्य मे यह चर्चा अपने विद्यापीठ मे हो. वहाँ का आयोजन समझिये. चर्चा पश्चात क्या करते हैं यह समझिये कुस मिलाकर पंद्रह-बीस दिन आप यहाँ रह आइयें  दीक्षित ने कही . उनकी चमक  दिखानेका मौका मिल रहा था. वे चले  गये.  शिंदेने कुलगुरूसे कहाँ  महाशय आपकी  बुद्धी की  जो तारिफ  की जाय  वह कम ही है. आपके सुंदर  शरीर मे सुंदर बुद्धि भी निवास   करती है. कुलगुरू प्रसन्न हुए. पंडितने कहा, अब आच्छादान दूर हुआ. अब दीक्षित  पत्नी स्वतंत्र विचार कर सकेगी. अब उन्हे राष्ट्र के कार्य का बोध कराया जा सकेगा. कुलगुरू ने हामी भरी. स्त्रियों की बुद्धी उपेक्षित  रहे यह  उचित नही. उसे राष्ट्र के कार्य  मे लगाने के लिये दीक्षित पत्नी को समझाना होगा.
          जब आवरण दूर हुआ तो कुलगुरू उतावले  हुए. पंडित भी उतावले हुए. लेकीन प्रश्न यह था की कुलगुरू का संदेश दीक्षित पत्नी के लिये क्या हो? उसे पहुँचाया जाय? सबसे मुख्य बात कि उसे कौन पहुचाया  जाय?    पंडित की ऑखों मे चमक  थी.  शिंदे के मन मे भी कुछ लहरें उठ रही थीं.
                            अहस्तांतरणीय-३
             फिर पंडिनत ने कहा शिंदे , तुम कोई चिंता मत करो . मैं  उनके पास  जाऊँगा  राष्ट्रकार्य के प्रति   कुलगुरू के  मनमे जो आकुलता  हे  उन्हे बतलाऊगा। शिंदे को यह  अच्छा नही लगा. ऐसी  बुद्धीमती महिला के पास  जानेका पहला मौका पंडित को क्यों दिया जाय?  कहने लगे मेरा अधिकार श्रेष्ठ है. आयु  से भी  और ज्ञानसे  भी. फिर आवरण हटाने को उपाय किसने सुझाया था ?  पंडितने  कहा यहाँ  ज्ञान और  आयुका हिसाब कहा है?  यहाँ चाहिये वाक्-  चातुर्य. सो तो आपके पास  है नही .कुछ कहने  जायेंगे और कुछ  अन्य  कहेंगें तो वह नही आयेगी.
            बात बढी शब्दोंकी बढी. आवाजमें  भी बढने  लगीं  तो .कर्मचारियोंके कान दिवार पर आ टिके.  फिर शिंदे को समझ  आई  कि  इस तरह  से तो  बात बिगड जायेगी. पंडित को भी  समझ आई. कहा, शिंदे इस प्रकार  तो राष्ट्रकार्य का सर्वनाश होगा . इस मसले को दुसरी तरह सुलझाना होगा.  गोपनीयता निभानी  होगी, अतः  कोई पंच  भी नियुक्त नही कर सकते. फिर शिंदे भी  थोडे नरम  पडे.  लेकीन निर्णय कैसे  हो? फिर पंडितने उपाय सुझाया.  हमारा राष्ट्रीय खेल क्या है? कुश्ती ते वही हम करेंगे. जो जितेका वही  दीक्षित पत्नी के पास जायेगा. तो फिर देर क्यों? अभी चलते हैं.
                 विद्यापीठमे ऐसे ही प्रसंगों के लिये यहाँ आते. शिंदे और पंडित  आखाडे  पर पहुँचे  ,शिंदे ने कपडे उतारे . पंडित ने भी  कपडे उतारे . दोनो मिट्टी मे उतरे. जम कर  दाँवपेच आरंभ हुए. फिर अचानक  क्या  हुआ कि पंडित  के एक  दाँवसे शिंदे पछाड खा गये. उनकी पीठ जमीन से जा  टिकी  कुश्ती का निर्णय हुआ कि पहले  पंडित ही दिक्षित पत्नी के पास जायेंगे.
                      दोपहर ढलने पर थी। मौसम सुहाना था। दीक्षित पत्नी प्रसन्न चित्त आराम कर रहीं थां . दरवाजे पर  किसीकी खटखट  सुनी खोलकर देखा की पंडित थे.  पंडित अंदर आये. दीक्षित  पत्नी की लेखन सामग्री  सामने पडी थी.  कुछ संदर्भ ग्रंथ बिखरे  पडे थे.  पंडित साथ वाले आसन पर बैठे.   उनकी छाती धडक रही थी,  और आवाज  उनके  कानों तक  पहुँच रही थी.  धैर्य  इकठ्ठा कर बोले, देवी  आप  बुद्धीमान है, आप चतुर है, सो कुलगुरू ने आपको पाचारण किया है. बाहर रथ तैयार है, आईये, देर न कीजिये।                दीक्षित पत्नी बुद्धीमान थी  चतुर थी.  व्यव्हार कुशल थी.  सोचा पंडित को अधिक देर तक घरमे  बैठा कर रखना उचित नही. ना कहने  का भी यह समय नही. अभी चलना पडेगा. आगे की आगे  देखी  जायगी.  वे बाहर आई. देखा कुलगुरू का रथ बाहर अपनी पूरी भव्यता से खडा था. पताका डोल रही थी.  चार पुष्ट घोडे चलने को उतावले थे.  चांदी के झूमर रथमे  इधर उधर लटक रहे थे निहित वेषभूषामें सारथी विराजमान था. दीक्षित पत्नी अपने  पडोसियोंकी निगाह से बचती  हुई रथके  पाश्र्वभाग मे जा बैठी. पंडित  सामने सारथी के पास बैठे. रथ वायुवेग  से दौडने  लगा.  देखते  देखते   रथ एक महलके पास आ रूका. दीक्षित पत्नी उतरी देखा , यह कुलगुरू का महल नही था. उस  महल से  वे परिचित थीं. हर शुक्रवार को वे भजन  कार्यक्रम के लिये वहा जाती. कुलगुरू वहा उन्हें अध्यात्मिक ऊंचाइयाँ समझाया करते थे. यह वह महल  नही था.
                 उन्होंने पंडित को देखा .पंडित ने कहा हम यहाँ थोडी देर  विश्राम करेंगे. आप थक गई होंगी पंडित  महल के अंदर आये.   दीक्षित पत्नि ने पंडित को देखा . पंडित का ह्दय और तेजी से धडकने लगा. धीरे धीरे  कहने लगे. उनकी पत्नी तीर्थयात्रा को गई है.  कुलगुरू की  धर्मपत्नी के साथ . कुलगुरू ने विद्यापीठ को एक  आध्यात्मिक  आयाम दिया हैं.   हम सब बडे ही भाग्यशाली हैं, जो ऐसे अध्यात्मिक  हमारे कुलगुरू  हैं.  सुनकर दीक्षित पत्नी नाराज हुई. कहा, वाह पंडित ,क्या  यही है तुम्हारी स्वामिनिष्ठा? उधर कुलगुरू  हमारी प्रतीक्षा  कर रहे होंगे  और  आप मुझे विश्रामके लिए कह रहे है ?  चलिये, अब देर करना उचित  नही.  पंडित को नही सूझा कि अब  क्या कहे. उनकी  धडकन और  तेज हो गई. किसी  तरह इसे रोकना होगा  वरना यह तो हाथसे निकल जायेगी, कहा,  देवी  थोडासा धीरज रखे. हम कुछ शीतपेय लेगे और फिर  चलेंगे । थकान  उतर जायेगी.   दीक्षित पत्नी चूप! पंडित तय नही कर पाये कि आगे क्या कहें.
               तभा दरवाजे  पर धपकी पडी . दीक्षित  पत्नीने  जल्दी उठकर दरवाजा खटखटाया था.  कहने लगे अरे पंडित भाई, इतनी  देर कर दी . उधर कुलगुरू  प्रतीक्षा कर रहे है.  दीक्षित पत्नी बुद्धीमान थी. चतुर थी।  व्यव्हार कुशल थी. तत्काल बाहर आ गई और  जाकर  रथके  पाश्वभाग मे बैठ ङी गई शिंदे भी आये और सारथी के साथ बैठ गये.  पंडित भी बाहर आये . बडे ही कातर   नेत्रोंसे उन्होंने  शिंदे को और  रथको विदा किया.  नजर से  ही शिंदे को बताया कि जोखम  भरी यह वस्तु अब  तुम्हें सौप दी है. बस  चलता तो शिंदे से इस हस्तांतरण की रसीद भी ले लेते. तभी  रथ चल पडा. शिंदे के मनमे  आनंद हिलोरे लेने लगा. एक नई चेतना जाग उठी.
              कुछ प्रतीक्षा के पश्चात् रथ  एक महल के सामने  रूका. शिंदे उतरे दीक्षित  पत्नी भी उतरी. शिंदे  सीढीयाँ  चढकर  महल में  गये.  वे भी  पीछे पीछे गई.  अंगर आते ही तपाकते कहा,  शिंदे आपकी धर्मपत्नी भी  तीर्थयात्रापर गई होगी।  कुलगुरू की धर्मपत्नी के साथ ।  सो अब आप जल्दीसे मेरे लिये कोई शीतपेय  मंगवाइये. मेरी थकान दूर किरिये. । आखिर पंडित के घरसे उतनी दूर  आने मे  मुझे भी  थकान हुई होगी कि  नही?  शिंदे सन्न । क्या  ये महिला  उपहास कर रही है या सत्य  कह रही है?  कुछ तय नही कर  पाये.  समझ   गये की मामला उतना  सीधा नही,  जितना वो  सोच बैठे थे. नौकार  को बुलाया शीतपेय के लिये. नौकर  ले आया  तो दिक्षित  पत्नीने  उसे रोक लिया  और उसकी  पूछताछ करने लगी. आधा घंटा बीता. एक घंटा बीता था. लेकीन  दीक्षित पत्नी थी जो  नौकर  को छोडने का नाम  नही ले  रही थी. हारकर बोले देवीजी  चलिये कुलगुरू प्रतीक्षा  मे होंगे .दोनो बाहर आये. . दीक्षित  पत्नी फिर एक बार  रथ के पाश्वभाम मे बैठी और शिंदे आगे.
                  रथ बडी शानसे चलने लगा. उपर  लगी पताका पहराने लगी. घोडे अब पूरे जोशमें थे. रात गहरा चुकी थी. रथ आकर कुलगुरूके महल के सामने रूका
                  उतावलीसे शिंदे उतरे प्राय़ः दोडते हुए महलमे प्रवेश  किया. तो देखा की कुलगुरू पूरे नखशिखसे  कुलगुरू ही थे.  अपनी  पूरी  पोशाखमे .हर वर्ष राजाकी  ओरसे कुलगुरू  को पूरा  पोशाख दिया जाता था.  इसके  लिये  मे  उन्हे  कुछ भी  नही करना पडना था.  केवल राज दरबारमे  हाजिर  होकर  एक बार  दंडवत  सहित महाराजा   की जयजयकार  करनी पडती  थी.   फिर महाराज उन्हें  सुवर्ण  की थालीमे  पोषाख  भेट करते थे.  सोने के कशीदे वाली  रेशमी  पोषाख , साथ में राजमुद्रा के  चिन्हसे  अंकित  स्वर्ण पंख वाली  पगडी . गलेमें मोतियों  का हार . यहाँ  तक की  पैरोंमे  डालने के लिये  कोल्हापूरी  कारागिरोके बनाये मजबूत  पादत्राण  भी,  जिन्हे  अधिक मजबूत  रखने के लिये  निचे  से लोहे की नाल ठुकी थी विशेष  अवसर पर कुलगुरू उन्हे  पहनें  आज ऐसा ही विशेष  अवसर  था.  क्यों न हो? आखिर  कुलगुरू  आज एक  विदुषि  को रितबभातके  लिये  मनाने वाले थे.  कि उनकी बुद्धिमत्ता का उपयोग  राष्ट्रकार्य के लिये  किया जाना चाहिये.
                 कुलगुरू महल के अंदर बेचौनीसे टहल रहे थे. मनही  मन अपने  शब्दोंको सहेज रहे थे कि दीक्षित  पत्नी  के आनेपर  उन्हें  क्या कहेंगे. उन्हें  देनेकी भेट वस्तूएँ  पहलेसे बाहर निकालकर  मंजूषामें  तैयार रख्खी थी. उनकी धर्मपत्नी  तीर्थयात्रा पर थी.  घरके सारे नौकर  को आज  उन्होंने  छुट्टी दी थी, केवल एक बहरी बुढिया नोकरानी के सिवा. वह  रसोई मे कुछ खड-बड कर रही थी.  कुलगुरू  आतुर हो चले  थे.  प्रतीक्षा की घडियाँ बडी लम्बी हो चली. तभी  उनकी  दृष्टी  शिदे  पर पडी  शिंदे की मुद्रा उत्फुल्ल थी.  कुलगुरू का टहलना बंद  होते ही उनके पास आये और  विनम्र  भावसे अभिवादन कर बोले, महाराज काम बन गया.  शिंदे  कुलगुरू को  सब कुछ विस्तार से  बताना चाहते थे. लेकिन  पहले उस वस्तुका हस्तांतरण  करना आवश्यक था जिसकी  जोखम  उनपर  थी.  शिंदे  की उतावली देख  कुलगुरू  थोडा  सा मुस्कुराये. कहा, शिंदे  ,आपकी साँस क्यों फूल  रही है?  पर घबराइये नही.  आपको आपके काम का  एक अच्छा  सा इनाम अवश्य  मिलेगा.  शिंदे दीनभावसे  हँसे महाराज  आपकी सेवा का अवसर मिला यही मेरे लिये  सब कुछ  है. मुझे कोई भी मोह नही . राष्ट्र  कार्यमे  कुछ मैने  भी हाथ बँटाया , धन्य  हो गया. कुलगुरू  हँसे बोले , फिर समय व्यर्थ न गवाईये. जाईये और   दोवीजीको  धीरेसे उतार कर ले आईये. शिंदे उसी  शीघ्रगतिसे  बाहर आये  जैसेअंदर गये थे . रथ के पिछले  हिस्से मे पहुँचे उन्हें  भी उतावली हो रही थी कि कब   देवीजीका  हाथ थामूँ और उन्हे कुलगुरू को हस्तांतरित  करूँ.
                लेकीन रथके अंदर  झांकर तो सन्न रह गये.  लगा  सारी  पृथ्वी  डोलने लगी.  हे धरती माता,  अब तुम  ही फाटकर मुझे  अपनेमे  समेट लो क्या करूँ. कुलगुरू  को क्या मुँह दिखाऊँ? रथके  अन्दर  दीक्षित  पत्नी  थी ही  नही.  रथ खाली पडा था. देवीजी  रथसे कहाँ गई? यह सू कैसे संभव  हुआ?  बडबडाते हुए  शिंदे फिर गये  कुलगुरू  के पास .              कुलगुरू की आतुरता अब चरम सिमापर थी.  शिंदेका अकेला आना उन्हे  अशुभ  सूचक लगा.  नजर  गडाकर  जो शिंदेको देखा तो शिंदेको कॅपकँपी छूट गयी.  किसी तरह कहा, महाराज मेरी कोई गलती  नही. मैने पंडीतके महलमे  दोवीजीको अपने  संरक्षमे लिया.  फिर मेरे  महलमे  उन्हे  शित पेय  पिलाया.  फिर  अपनी  ऑंखोसे देखा की वेआकर  रथमे  बैठी. चाहे तो सारथीको भी पूछ लिजीए.
                कुलगुरू  अब पूरी बात समझ गये. देवीजी बुद्धीमान ! देवीजी चतुर ! देवीजी व्यव्हारकुशल!  यह शिंदे मुर्ख!  शिंदे बुडवक ! शिंदे उतावला!  इसी शिंदेने बनती बात को  बिगाड दिया.  चापलूसी करनेवाला  हर व्यक्ती  समझदार  नही होता, यह  ज्ञान  कुलगुरूको अब जाकर हुआ. लेकिन अब देर हो  चुकी थी.  बडी देर..... कुलगुरूका क्रोध आकाश  छूने लगा.  सदा मृदृ वाणीवाले कुलगुरूने अपन् पैरोसे भारी  भरकम  कोल्हापूरी  पादत्राण  निकाला और  शिंदेको  खींच मारा.  शिंदे विमनस्क खडे थे.  अनपेक्षित के घट जानसे अस्तव्यस्त थे.  उनका दुर्भाग्य कि कुलगुरूका पादत्राण सीधे उनके ललाटपर  पडा.  शिंदेका ललाट इन दिनों  ऊपरकी तरफसे अधिकाअधिक चौडा हो रहा  था,  जिसे वह बुद्धीकी प्रगतिका  लक्षण मान रहे  थे.  विशेषतः कुलगुरूके सहवाससे ललाटकी चौडाई और अधिक बढ रही थी.
                इसी ललाटपर वह घोडेकी नाल ठुका हुआ पादत्राण आ पडा.  उनके  ललाटपर  दूजके चंद्रमाकी भांती रक्तमुद्रा अंकित हो गयी.
               महलकी हरियालीमे  चरनेवाला किंतु सारा ध्यान शंकरजीकी कहानीकी ओर रखनेवाला नंदी भी  खुः खुः कर  हसने लगा. और उनके पासआ खडी हुआ.
           तो सुनो वाचकगण! आपने कथा पढी कथा पढनेके पश्चात् कथा महात्मय भी पढना पडता है।  जो इस कथा  को बाँचेंगा उसे क्या मिलेगा?  और साक्षात पार्वतीजी की श्रवण  की हुई कथा का जो श्रवम करेगा उसे क्या मिलेगा ?  तो इस कथा  को सुनकर  आप  अध्यात्मिक  भी होते है और  व्यव्हारकुशल  भी.  संकटसे बच निकलनेकी प्रत्युत्पन्न मती जैसे दीक्षित के  पत्नीको मिली वैसी  ही हम  आपको  मिले ! तथास्तु!
 लीना मेहंदळे(अनुवाद)
(मुळ लेखक- नागनाथ कोत्तापल्ली)    


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