सोमवार, 23 अप्रैल 2012

APARNA - चालू-चालू-चालू-चालू

अपर्णा
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अपर्णा
जयपुर स्टेशन छोड़कर गाड़ी काफी आगे आ चुकी थी। सारे प्रवासी अपने अपने सामान को यथास्थान रखकर निश्च्िंात हो चुके थे। पत्र पत्रिकाएँ खोलकर लोग मनोयोग से पढ़ने में जुट गये थे। कहीं किसी बड़े ग्रुप ने ताश के पत्ते निकाल लिये थे, तो कोई सज्जन आपसी बातों में गहराई तक उतर चुके थे। सबसे अलग थलग एक अपर्णा ही थी जो अभी तक डिब्बे के दरवाजे पर खड़ी बाहर की भागती दुनियाँ को निहार रही थी। शाम धीरे-धीरे उतर रही थी और अस्तगत होता हुआ सूरज शरीर को अच्छा लग रहा था। सामान की उसे चिंता नहीं थी। सेकंड ए.सी की सीटों के एक कोने में उसकी छोटी सूटकेस पड़ी थी और बाकी सारी जगह सहप्रवासी बच्चों की खाने पीने, खिलौने और कॉमिक्स बुक्स से भरी बैगों ने घेर ली थी। उसकी खिड़की वाली सीट एक छोटी बच्ची ने संभाल ली थी-' दीदी आप बेफिक्र रहिये मैं आपका सूटकेस संभालती रहूँगी।' अपर्णा हंसी थी- फिर दरवाजे पर आ गई थी।

कल रात जीजी का फोन आया था कि अपर्णा को दिल्ली भेज दो। फोन पर निमंत्रण तो सबके लिये था लेकिन माँ बाबूजी दोनों अपना कॉलेज छोड़ कर नहीं जा सकते थे- परिक्षाएँ चल रही थी। जीजी बड़ी खुशी से बता रही थी- शेखर को स्कॉलरशिप मिल गई है और अगली पांच तारीख को उसे जाना पडेगा। बस पच्चीस दिन रह गये हैं। पासपोर्ट, व्हिसा, सामान की खरेदी के अलावा घर में छोटा सा हवन भी करना चाह रही थी जीजी। फिर शेखर साल भर के लिये चला जायेगा। वह अपनी बात खुद नहीं कहेगा लेकिन क्या जीजी नहीं जानती कि यही पच्चीस दिन उसे अपर्णा के साथ मिल पायेंगे- और जीजी की तबियत भी आजकल बहुत अच्छी नहीं चल रही। अपर्णा आयेगी तो काम में हाथ बँटायेगी- थोड़ी उनकी भी देखभाल कर लेगी। 'शीलू, तुम बिल्कुल समय न गँवाना, बस कल ही अपर्णा को गाड़ी में बिठा दो।'

जीजी का हुकुम माँ भला कब टाल सकती थी। बचपन से ही अपर्णा ने देखा है- दोनों सहेलियों में बड़ा ही प्यार था। तब वे मॉडेल टाऊन कॉलोनी के छोटे छोटे फ्लैट में अपने सामने रहते थे। माँ उमर में छोटी थी। नई नई ब्याह कर आई थी तभी से पड़ोस की जीजी ने उसे सँभाल लिया था। दोनों की दाँत काटी रोटी थी। नये शहर का रहन सहन, बाजार-हाट, पति के छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी, आचार-बडियाँ बनाने से लेकर कॉलेज में लेक्चरार की पोस्टिंग लेने की सलाह तक- जीजी उसकी प्रेरणा का स्त्रोत थीं। अपर्णा ने जन्म से ही जीजी की गोदी का सुख पाया है। उसके और जीजी के आपसी रिश्ते या संबंध शेखर पर निर्भर नहीं हैं। शेखर न होता तो भी अपर्णा के लिये जीजी वही होतीं जो आज थीं। लेकिन शेखर के होने ने मानों दूध में केशर मिश्री घोल दी हो।

इधर दो वर्ष पहिले बाबूजी को जयपुर विश्र्वविद्यालय प्रोव्हाइस चान्सलर के लिये बुलावा आ गया और आगे उनका व्ही व्हाइस चान्सलर बनना करीब करीब तय है इसी से उनका परिवार जयपुर में आ गया है। फिर भी आये दिन फोन पर बातें होती रहती हैं। अपर्णा को लगता है मानों कल ही वे दिल्ली छोड़कर जयपुर गये हों। बस एक ही अन्तर आया है। मॉडेल टाऊन में अब जीजी भी नही रहती हैं। इधर बाबूजी जयपुर आ गये और उधर डॉक्टर साहब ने रोहिणी में एक बड़ा से फ्लैट खरीद रख्खा था वहाँ सारे लोग चले गये। अपर्णा पहली बार उस घर में जायेगी। कल जीजी बोल रही थीं-'तेरे लिये कमरा सजा कर रख्खा है। ज्यादा सामान मत लाना।'

दरवाजे से लौटकर अपर्णा अपनी सीट पर वापस आ गई। माँ के पैक किये परांठे- आचार के साथ साथ सहप्रवासी महिला के बिस्कुट कचौरी, मिठाइयाँ खाते खाते रात हो चली। बच्चे कभी खिड़की के लिये झगड़ रहे थे तो कभी एक ही कॉमिक बुक के लिये। और अपर्णा को ही तटस्थ जज का सम्मान मिला था- माँ तो हमेशा से पक्षपाती रही थीं- चारों पक्ष माँ को अपने विरोधी पक्ष के छुपे सहायक के रूप में रखते थे।

खा - पीकर, बत्ती बुझाकर अपर्णा लेट गई। शेखर ने कल फोन पर उससे केवल इतना कहा था- तुम परसों यहाँ पहुँच रही हो। फिर प्रदीप न फोन छीन लिया था- अपर्णा, स्टेशन पर तुम्हें लेने मैं ही आऊँगा। भैया बहुत बिझी हैं, सारे काम अभी तक पेंडिंग रख छोड़े हैं, पता नहीं तुम्हारे व मेरे बिना इनका गुजारा कैसे चलेगा। हमें भी स्कॉलरशिप मिलती तो जीजी निश्चिंत हो जाती।

अपर्णा को अभी भी हंसी आ गई। दोनों भाइयों के स्वभाव में कितना अंतर है, फिर भी कितना प्यार है। शेखर एक शांत झील की तरह है- गंभीर, दार्शनिक, अपनी कल्पना के साम्राज्य में डूबा हुआ- नई नई कल्पनाएँ नई सोच कोई उससे सुने। बचपन में साथ साथ खेलने के दिनों से ही वह प्रदीप और अपर्णा के लिए एक अभिमान का विषय था। दोनों परिवारों ने यह भी स्वाभाविक माना था कि शेखर और अपर्णा की जोड़ी अच्छी है। उनकी शादी में जीजी को कोई आपत्ति नहीं थी- केवल शेखर को छोड़कर। दो वर्ष पहले वह जयपुर आने लगे थे तो शेखर उसे अकेले ही पार्क में ले गया था- देखो अपर्णा, मैंने अपना आर्किटेक्चर का कोर्स अभी पूरा किया है- तीन चार वर्ष जमकर मैं इसे अच्छी नींव पर डालना चाहता हूँ। कुछ स्पेशलायजेशन भी कर लेता हूँ। मेरी किसी भी अचीव्हमेंट में तुम मुझसे अलग हो क्या?

अपर्णा जानती है कि अंतर्मुख स्वभाव वाले शेखर के लिये अपना प्यार जताने को इससे अधिक कह पाना संभव नहीं। वह कभी नहीं कह पायेगा कि मैं तुम्हे प्यार करता हूँ। और अपर्णा को भी इन शब्दों की क्या गरज? एक शब्द छोड़ दिये जायें तो अपने व्यवहार से शेखर ने हर मौके पर प्यार ही जताया है। लेकिन उसके प्यार में कहीं भी उतावलापन नही है। एक सहज बोध है कि अपर्णा है शेखर है, प्यार है, बस !

गाड़ी इतनी मंद गति से क्यों चल रही है ? बावली, क्या तुझे पता नहीं कि तू मुझे साजन घर ले चल रही है ? या फिर शायद तुझे पता है और तू जानबूझकर शरारत कर रही है !
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एकाकी पठार
दूर झिलमिलाते श्यामल वर्णी पहाड़ी ढलानों से नीचे तक उतर कर आया हुआ जंगल। इस पहाड़ी को अपर्णा बखूबी पहचानती है। पहाड़ी का उत्तरी सिरा अचानक ऊपर को उठ गया है। उसके पठार पर एक पंक्ति में सात बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हैं- इतनी दूरी से उनकी पहचान कर पाना संभव नही। लेकिन उनका विस्तार, उनकी घनी पत्त्िायों के मुकुट का आकार, उनकी पूरी पर्सनॉलिटि बनाती है कि वे एक ही जाति के वृक्ष हैं- बाकी जंगल के सभी वृक्षों से ऊँचे और शायद आयु में भी अधिक। दूर से उन्हें देखकर प्रवासी अपनी राह-दिशा निश्च्िात करते हैं। इस उत्तरी पठार को लोग एकाकी पठार भी कहते हैं- शायद इसलिये कि मुख्य पहाड़ी से वह अलग कट सा गया है। एकाकी पठार की तलछटी तक अपर्णा कई बार आ चुकी है। बचपन में पिता उसे अपने घोड़े पर आगे बिठाकर यहाँ लाते थे। तब यह इलाका उनके राज में था। फिर पिता की मृत्यु हुई। कुंवर सूर्यभान को छोटी उमर में राजगद्दी सँभालनी पड़ी। अभी इसके काबिल नही बने थे कुंवर। पुराने मंत्रियों को हटाकर अपने मित्रों की सलाह लेना अधिक पसंद करने लगे थें। एक वर्ष राज्य में अकाल पड़ा था। तभी पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर एक ही रात में एकाकी पठार के क्षेत्र को जीत लिया था। बिना लड़ाई के ही कुंवर ने वह क्षेत्र समर्पित कर दिया था- इस शर्त पर कि पड़ोसी राजा और आगे नही आयेगा। उसने भी शर्त मान ली थी। तबसे अपर्णा एकाकी पठार की ओर जाने के लिये तरस गई थी।

तलछटी के नीचे एक छोटी सी गढी थी जो राजा उदयराज ने अपने शिकार के लिये बनवाई थी। वहीं पडाव डालकर राजा शिकार करने निकल जाते। अपर्णा कभी उनके साथ जाती तो कभी गढी में ही रूक जाती- अपनी सखियों के साथ। अब वह गढी भी शत्रु के अधिकार में है। कभी कभी अपर्णा की इच्छा होती कि वह सेनापति बन जाय तो बलपूर्वक अपनी गढी और एकाकी पठार को फिर से जीत लेगी। लेकिन उसे सेनापति कैसे बनाया जा सकता है ? यदि पिता जीवित रहते तो कौन जाने उसे बना ही देते सेनापति- वरना क्यों  उन्होंने इन्तजाम करवाया था कि कुंवर सूर्यभान के साथ साथ उसे भी घुड़सवारी और शस्त्र संचलन सिखाया जाय ? और यदि पिता जीवित रहते तो एकाकी पठार को यों शत्रु के हाथ जाने ही नहीं देते।

अभी सेनापति है कुंवर सूर्यभान का मित्र भोजसिंह। दोनों मित्र चाहते हैं कि अपर्णा का ब्याह भोजसिंह से हो। भोजसिंह स्वंय इस प्रस्ताव को अपर्णा के सामने रखने की धृष्टता कर चुका है- यह जानकर भी कि अपर्णा उसे पसंद नहीं करती। भोजसिंह का तर्क बड़ा ही सरल है। यों भी वह राजा की नौकरी कर रहा है,   मित्रता भी कर रहा है,  और राजकुमारी अपर्णा का हाथ मिले तो रिश्तेदार भी बन सकता है। कभी आवश्यकता पडी तो कुंवर सूर्यभान के स्थान पर वही राजगद्दी संभाल सकता है। आज भी उसमें इतनी योग्यता तो है। अपर्णा से ब्याह करने से प्रजा की दृष्टि में वह अधिक पात्र सिद्ध होगा। चलो, उसका तर्क तो समझ में आ गया। लेकिन स्वंय कुंवर का क्या तर्क है ? भोजसिंह की महत्वाकाँक्षा जानते हुए भी कुंवर उसे इतना बढावा क्यों दे रहा है ? अपर्णा को लगता है कि कहीं न कहीं कुंवर स्वयं ही भोजसिंह से डरा हुआ है और उसकी राय के विपरीत कुछ कहने की हिम्मत नही है कुंवर में। लेकिन यदि भोजसिंह इतना सामर्थ्यवान योद्धा है, तो एकाकी पठार को क्यों इतनी सहजता से शत्रु के हाथ सौंप दिया ?

राजकुमारी अपर्णा घोड़ा लेकर आज फिर निकल गई है। तलछटी तक न सही, गढी तक न सही।
लेकिन अब जो भी गाँव उसके राज्य के हिस्सो में बचे हुए हैं, वहाँ बीच बीच में एक चक्कर लगाना राजकुमारी के जीवन का एक अंग बन गया है। प्रजाजनों से अधिक बातें नही कर सकती क्योंकि कुंवर और सेनापति के गुप्तदूत उसके आगे पीछे घूमते हैं। फिर भी दबी जबान से कोई कुछ बता ही देता है। आज फिर किसी ने बताया- गाँव की बहुबेटियाँ वैसी सुरक्षित नहीं जैसी उसके पिता राजा उदयराज के समय में थी। कौन लाता है यह असुरक्षितता का एहसास ? क्या पड़ोसी शत्रु राजा के सैनिक ? या भोजसिंह के ? कारण जो भी हो, अत्याचार में पिस रही हैं गाँव की स्त्रियाँ। उन्हें भी कुछ घुड़सवारी, कुछ शस्त्र चलाना सिखाया जाय तो कैसा रहे ? लेकिन कौन कर पायेगा यह आयोजन ? क्या कुंवर उसे करने देगा ? वह समझ बैठेगा कि अपर्णा उसी को चुनौती देने के लिये स्त्रियों की सेना बना रही है।

घुड़सवारी से थककर चूर राजकुमारी अपर्णा रात में अपने शयन मंच पर सोच में डूबी हुई है। थकान के बाद भी आँखों में नींद नहीं। कैसे हो इस समस्या का समाधान ?
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अचानक नींद खुली तो अपर्णा ने पाया कि गाड़ी किसी छोटे स्टेशन पर रूकी हुई है। भोर हो चुकी थी। छोटी छोटी कुल्हडों में चाय बेचते फेरीवाले हाँक लगा रहे थे। अपर्णा ने भी दरवाजे तक जाकर एक प्याली चाय ले ली। उसका अंग अंग टूट रहा था- जैसे वह अभी घुड़सवारी से लौटी हो। अचानक उसे अपना स्वप्न याद आया। हाँ, स्वप्न ही तो था। राजकुमारी अपर्णा, कुंवर सूर्यभान, सेनापति भोजसिंह, वह गढी, वह पहाड़ी, वह घुड़सवारी ! आज पहली बार तो नहीं। यह स्वप्न वह पहले भी देख चुकी है- टुकड़ों-टुकड़ों में। सारे टुकड़े उसे याद नही रहते। शायद किसी स्वप्न में इससे कम या इससे अधिक कुछ देखा हो। अपर्णा ने अपना माथा सहलाया। उसे कुछ याद क्यों नहीं आता कि पहले स्वप्नों में उसने क्या क्या देखा ? वह गढी क्या कहीं है ? या वह पहाड़ी ? वह उत्तर के छोर पर ऊँचा उठता हुआ एकाकी पठार ? क्या वह इसी देश में कहीं है या विदेश में ? अपर्णा का उस स्वप्न से क्या रिश्ता ? क्यों स्वप्न में भी उसका नाम वही रह जाता है ? क्या कहीं उसके भीतर राजकुमारी बनने की, राजरानी बनने की, युद्ध लड़ने की, घुड़सवारी करने की चाह है ?

अपर्णा ने अपने मन को टटोलना चाहा। काश कि उसने बी.ए. की पढाई में इतिहास की बजाय मनोविज्ञान पढा होता।

राजकुमारी अपर्णा में और आज की अपर्णा में कितना अन्तर है ? यह अपर्णा एक शांत स्वभाव की, अपने में मगन, अपने प्यार में मगन, कोमलांगी है। 'कोमलांगी' ! अपर्णा को फिर हंसी आई। यह सोलहवीं शताब्दी का शब्द उसने कैसे अपने आप पर इस्तेमाल किया ? माना कि वह श्रृंगार और नाज नखरे करने वाली अन्य लड़कियों की तरह नहीं है। लेकिन इतनी दकियानूसी भी नही कि अपने आप को 'कोमलांगी' कहे। शायद स्वप्न की दुनियाँ से वह पूरी तरह बाहर नहीं आ पाई है।

एक बार.... केवल एक बार अपर्णा ने सोचा था कि वह अपना स्वप्न शेखर को बतायेगी- और वह काँप गई थी। भीतर ही भीतर उसे लगा जैसे शेखर का कहीं ना कहीं इस स्वप्न से गहरा संबंध है। और शायद वह संबंध वांछनीय नही है। जीवन में पहली बार उसने पाया कि यह एक बात वह शेखर को नहीं बता पा रही है। उसे याद आया कि एक बार स्कूल के एक लड़के राजीव ने उसे कुछ इशारे कर दिये थे तो यह भी उसने शेखर से निःसंकोच कह दिया था। शेखर ने बड़ी ठंडी आवाज में राजीवसे कह दिया था- फिर नही करना। और ऐसा लगा जैसे सारी पृथ्वी स्तब्ध हो गई हो। तब शेखर, शेखर नही लगा था- एक ज्वालामुखी लगा था। बस एक क्षण के लिये। शेखर का वह मूड फिर कभी किसी ने नही देखा। लेकिन अपर्णा के स्कूल के सारे मित्र-सहेलियाँ, दबी जबान में इसे दुहराते थे, फिर शेखर, अपर्णा, प्रदीप या राजीव को देखकर चुप हो जाते। इशारों की बात भी अपर्णा और राजीव दिमाग से निकाल चुके हैं। राजीव भी अब बड़ा हो गया है और कभी मिलता है तो शालीनता से पेश आता है।
लेकिन इस स्वप्न की बात शेखर से कहना अपर्णा के लिये संभव नही हो पाया। उसने चाहा कि एक डायरी में लिख ले, या माता-पिता या जीजी को बता दे। उससे भी अच्छा कि डॉक्टर साहब को बता दे- लेकिन मन ने कचोटा था- जो बात तू शेखर से नही कह पायी वह दूसरों से क्यों कहेगी ? उसी दिन पहली बार उसने समझा कि वह शेखर को प्यार करती है। यह ज्ञान अपने आप में एक खुशी का मौका था। फिर ऐसी कौन सी गांठ दोनों के बीच है कि इस स्वप्न की बात शेखर से नही कह पा रही है ?

अपर्णा ने देखा- दिल्ली बस आ ही चली थी। लोग सामान समेटने लगे थे। उसके मन पर एक अवसाद सा छाया था। लेकिन कोई बात नही। अभी स्टेशन पर शेखर आ जायेगा तो अवसाद के बादल छँट जायेंगे। शेखर जैसा उसके मन को जिवन्तता से भर देने वाला और कोई नही !
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दिल्ली स्टेशन आ रहा था। अपर्णा अपनी छोटी बैग हाथ में लिये ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी थी। सहयात्री परिवार के चारों बच्चों को दरवाजे से यथासंभव दूर रखने में ही व्यस्त थी कि दूर से प्रदीप ने हाथ हिलाकर उसे विश किया। ट्रेन के रूकते ही प्रदीप ने बैग उसके हाथ से ले लिया और दानों चल पड़े। तो प्रदीप ने सच ही कहा था कि शेखर बहुत बिझी हैं।
दिल्ली में गर्मी का मौसम शुरू हो गया था। प्रदीप ने कार स्टेशन से बाहर निकाली और अपने चिरंतन बकबकी मूड में आ गया। उसने कार को राष्ट्रपति भवन की ओर मोड लिया। अपर्णा, घर पहुँचने में आधे घंटे की देर हो जायेगी, चलेगा ना ? दिल्ली में आजकल गर्मी के फूलों की बहार छाई हुई है। अमलतास और क्वीन्स फ्लॉवर्स ! कुछ ही दिनों पहले आती तो सफेद कचनार दिखता।'
'तुमने फोटो नहीं खींचे ?'
' वह मैं कैसे छोड़ सकता हूँ ! घर चलो तो वह भी दिखाऊँगा। फिर बैठकर छाटेंगे कि कौन सा किस मैगजीन को भेजना है।' इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन और अशोक हॉटेल तक अपर्णा और प्रदीप फूलोंसे पेड़ों के मोहक आकार देखते चले गये। प्रदीप ने उसे हर पेड़ के सामने रूक कर बताया कि इसका फोटो किस ऍङ्गल से लिया है।
प्रदीप एक अच्छा फोटोग्राफर था। उसके हाथों फोटोग्राफी एक अच्छा कला बन कर निखर गई थी। उसका प्रिय विषय था- पेड़ ! उसके कई कई रील पेड़ों पर पत्त्िायों के आकार पर, किसी डाली की लोच को पकड़ने में खर्च हो जाते। और फूलों का तो वह दीवाना ही था।

जानती हो अपर्णा, हर पेड़ की अपनी पर्सनॉलिटी होती है, अपनी भाव भंगिमा। एक पेड़ कैसे डोलता है यह भी देखने की चीज है। गुलमोहर को देखो तो उसकी डालियाँ नीचे झुकी झुकी जाती हैं। वहीं महारूख को देखो, तो एक एक डाल सीधे ऊपर को उठ रही थी। दूर से देखने पर भी पेड़ अपनी डालियों की सजावट के कारण पहचाना जा सकता है। वह देखो, दूर पर कुछ नीलगिरी के पेड़ झूल रहे हैं।
अपर्णा ने देखा, वाकई नीलगिरी का पेड़ झूलता है, तो अपनी ऊँचाई और छरहरेपन के कारण पूरा का पूरा पेड़ कभी दांई तो कभी बाई ओर झुकता है। यही यदि आम जैसा विस्तार वाला पेड़ हो तो उसकी शाखाएँ अलग अलग दिशा में झूलेंगी।

इस पीपल को देखो- प्रदीप ने उसका ध्यान खींचा। उसकी वे फुनगियाँ देख रही हो। मैंने कुछ फोटो खींचे हैं उन फुनगियों के भी। अपर्णा ने देखा वाकई पीपल की फुनगियों का आकार कुछ खास ही होता है। अब तक वह केवल नीम के आकार को देखती थी। लेकिन पीपल की फुनगीका भी एक अपना ही अंदाज है।

दो वर्षों में प्रदीप की कला और शौक ने अच्छा खासा रिसर्चर का मूड बना लिया था।

घर पहुँचते ही अपर्णा जीजी से लिपट कर ऐसी मिली मानों गाय का कोई बछड़ा इधर उधर भटक कर देर से वापस लौटा हो। डॉक्टर साहब शेखर को अपने किसी दोस्त से मिलवाने ले गये थे।
नहाकर अपर्णा बाहर निकली और खाने की मेज पर आई। प्रदीप ने उसे देखा तो आम काटने लगा। अपर्णा को आम बेहद पसंद थे।
आम खाओगी ? हाँ, क्यों नही ?
लेकिन भैया को पिछले दो दिनों से आम खाने की फुर्सत ही नही मिली है। फिर भी तुम खा लोगी ? प्रदीप की शरारत पर अपर्णा उसे मारने दौड़ी तो उसने झट अमलतास के फूलों का अलबम उसके सामने कर दिया। लो देखो और बताना कि क्या इसकी मैं एक पुस्तक निकाल सकता हूँ।
शाम को शेखर, अपर्णा और प्रदीप लम्बी शॉपिंग कर लौटे। इसकी लिस्ट अपर्णा ने पहले से बना रखी थी। थककर चूर अपर्णा जल्दी सोने के मूड में थी कि शेखर ने कहा- मैं सुबह का अलार्म लगा रहा हूँ। जल्दी उठकर पार्क में सैर करने चलेंगे।
पार्क में पहुँचते ही अपर्णा और शेखर ने जूते खोल कर कार में रख दिये। नंगे पैरा को दूब और बजरी का मिला जुला स्पर्श अच्छा लग रहा था।

शेखर उसे अपनी स्कॉलरशिप के विषय में बता रहा था। यह स्कॉलरशिप उसे पुरातत्व संबंधी पढाई के लिये मिल रही थी। पुरानी संस्कृतियाँ, उस काल में प्रयुक्त होने वाली घरों और नगरों की रचना शैली, किलों की सुरक्षा व्यवस्था, व्यापारी गाँवों को बसाना, उत्खनन की पद्धतियाँ, काफी कुछ नया सीखना था उसे।

वैसे तो इस छोटी सी उम्र में ही शेखर का नाम देश के उभरते हुए आर्किटेक्टों में गिना जाने लगा था। अपनी मास्टर्स डिग्री के लिये उसने नगर-रचना में स्पेशलाइजेशन किया था। उसी दौरान फैजाबाद शहर-विकास प्राधिकरण की खबर उसने पढी। वहाँ सिवरेज डिस्पोजल के लिये पूरी पाइप लाईन डालने की बात थी। शेखर ने पहले भी कई शहरों की डिस्पोजल सिस्टम की पढाई में देखा था कि उनका सारा गंदा पानी नदियों में छोड़ दिया जाता है ताकि वह तेजी से बहकर निकल जाय। जब तक नदियों में भरपूर पानी था, और प्रवाह की गति तेज थी, और शहरों पर जनसंख्या बोझ कम था, तब तक रोज की तमाम गंदगी को बहाकर ले जाने पर भी नदी का पानी साफ रहता था। यह स्थिति अब उलटी हो रही थी। बढ़ती आबादी के शहरों में रोजाना जमा होने वाले मैल, कूड़ा और प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही थी। उधर नदियों के मुहाने पर बांध बन जाने से पात्र में नदी की धारा सिमटती जा रही थी। इस समस्या का उपाय नई मल निस्तारण प्रणालियों ने नहीं सोचा था।

फैजाबाद के शहरी प्राधिकरण को शेखर ने एक नई स्कीम बनाकर दिखाई भी, इसके अनुसार शहर की सारी मल वाहिकाएँ नदी के पास लाकर उन्हें नदी के समानान्तर चलाते हुए गाँव से बहुत आगे ले जाना था। वहाँ नदी के पात्र में बड़े-बड़े कुएँ खुदवा दिये थे। कुँए की जगत ऐसी बनाई थी जो बारिश में भी नदी के पानी से ऊँची रहे। नदी में  बहुत अधिक पानी आ जाये तभी कुएँकी जगतके ऊपरसे पानी बहेगा और अपने प्रवाह के वेगसे काफी गन्दगी बहा ले जायेगा। तबतक कुएँकी तलछटीमें ही वह गलती रहेगी। शेखरकी स्कीम चलाने पर फैजाबाद शहर को बडी राहत मिली थी।

और अब शेखर का ध्यान गया था पुरातत्व की ओर। एक नगर रचनाकार की आँखों से पुरातत्व की पढाई करने के लिये वह जाना चाह रहा था। शेखर को उम्मीद थी कि यह डॉक्टरेट वह ढाई वर्षों में पूरा कर लेगा।
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अस्पताल के स्पेशल वॉर्ड में आज मीना अकेली रह गई थी। उसके आँसू थम नही रहे थे। और मन ? वह पल भर में कहाँ कहाँ भटक कर आ जाता और आँसूओंको और भी बढा देता। पंद्रह दिनो में उसकी दुनियाँ ही पलट गई थी।
नर्स बताकर गई थी कि थोडी ही देर में डॉक्टर नागेंद्र के साथ एसीपी भी आनेवाले हैं। उसका बयानन रिकॉर्ड करने । कहाँ से शुरू करेगी अपना बयान ? डॉक्टर नागेंद्र ने कल ही उससे कहा था कि जितना विस्तार से बना सको बता देना।
बाहर से आहट आई तो मीना ने अपने को संभालने कि कोशिश की।
गुड मॉर्निंग । आज कैसी है हमारी पेशंट? मुझे तो अच्छी नही दिखती । इनसे मिलो एसीपी सहाय । डॉक्टर साहब ने एक प्रौढ से अफसर की ओर इशारा किया।
अपनेको संभालो बेटी, रोनेसे काम नही चलेगा। अब तो तुम्हे ही सब कुछ संभालना है।
हमलोग हर साल की तरह इंडिया आए थे।
हमलोग कौन?
मैं, माँ, पापा, और जत्ती। गाँव मे मौसेरी बहन की शादी थी। शादी पूरी हुई। मेहमान एक एक कर विदा होने लगे। हमारे भी चलने का समय आ गया था। पापा और माँ की बातचीत हुई। छः महिने पहिले हमारी दादी का देहान्त हुआ था, तब हममें से कोई इंडिया नही आया था । चाचाजीने ही सारी रस्में पूरी की । तो पापाने प्लान बनाया कि कमसे कम हरिद्वार चलकर तर्पण कर लेते हैं । कार से हमलोग रवाना हुए। एक गाँव के आगे हायवे फ्री था और ड्रायवर ने गाडी तेजीसे निकालनी चाही । लेकिन मोड पर सामने से एक ट्रक आ रही थी उसके सामने अचानक दौडती हुई भैंस आ गई उसे बचाने के लिये ट्रक बाईं ओर मुडी और उससे टकराई। उसी से हमारी गाडी उलटी हो गई। मैं पीछे की सीट पर बाईं ओर थी, जत्ती बीचमें और माँ दहिने ओर । मेरा वाला दरवाजा खुलने से मैं और जत्ती फेंके गये - शायद इसीलिये बच गये।
तो तुम यह कहती हो कि ट्रक ड्राइवर की गलती नही है ?
नही मैं यह नही कहती, गलती दोनों ड्राइवरोंकी थी क्यों कि दोनो तेज थे।
लेकिन टक्कर हुई वह भैंसके कारण। बल्कि ट्रक ड्राइवर और ट्रक में बैठे बाबाजी ने तो हमे बचाया और यहाँ अस्पताल में ले आये। लेकिन माँ पापा का अन्तिम दर्शन हम दोनों नही कर पाये। चाचा ने ही आकर सारे संस्कार पूरे किये।
मीना की आँखोंसे आंसुओंकी धार बह चली।
लेकिन पुलिस ने तो ट्रक चालक और बाबाजी दोनों को पूछताछ के लिये रोख रका है। डॉक्टर नागेंद्र ने बताया ।
नही डॉक्टर अंकल, उन्हे छोड देना ही ठीक रहेगा। लेकिन में एक बार बाबाजी से मिलना चाहती हूँ।
 वह क्यों?

क्यों कि जब वे मुझे और जत्ती को उठाकर अस्पताल ला रहे थे तो मैं पूरी बेहोश नही थी । मैने उन्हे कहते हुए सुना अरे, यह तो मंजिरी है। आखिर किस्मत इसे एकाकी पठार तक ले ही आई। 

मंजिरी कौन है? एसीपी सहाय ने साथ के कॉस्टेबल को इशारा किया कि बयान लिखता रहे।
मुझे पता नही अंकल । मै किसी मंजिरी को नही जानती । न ही मुझे किसी एकाकी पठार का पता है।
हूँ, बाबाजीने पूछताछ मे हमे तुम्हारे बारे मे कुछ नही बताया ।
उन्हें मालूम भी नही होगा। क्यों कि मैने जिन्दगी में कभी उन्हे नही देखा है। हमलोग इन्डिया में आते ही हैं कितने कम दिनों के लिये।
याद करो। क्या तुम्हारे रिश्तेदार या स्कूल की सहेलियों मे कोई मंजिरी है या नही। 
आइये एसीपी साहब, चलते हैं, मेरे पेशंट को रेस्ट की जरूरत है। डॉक्टर नागेंद्र ने कहा।
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लेकिन अंकल, वह बाबजी से मुलाकात ?
हाँ, इनकी फॉर्मेलिटी पूरी हो जाय तो उन्हें मैं ले आऊँगा। लेकिन कल। आज आराम करो।

जत्ती कैसा है
अभी भी शॉक में है । उसे ज्यादा आराम की जरूरत है । तुम तीन दिन बाद फिर उससे मिल सकती हो । तब तक शायद तुम्हे पहचानने लगे। 

हाँ शेखर यही वह जगह है। अपर्णा और शेखर दोनों ही स्तब्ध थे। अपर्णा के सपने का विवरण शेखर के कानो मे गुँजने लगा।
इस पत्र मे वह सच्चाई है राजकुमारी जो तुम्हे समझाएगी कि मुझसे ही विवाह क्यों करना चाहिये। शिवपाल ने कहा था।
दुनियाँ कि कोई भी बात मुझे मेरे भाई के हत्यारे से विवाह के लिये मजबूर नही कर सकती है। राजकुमारी अपर्णा ने उत्तर दिया था। फिर एक ही छलांग मे चादर छोडकर वह जमीन पर कूद पडी थी। फिर भागने के लिये उद्यत हुई तो दो बातों का मोह नही छूटा। उसने पत्र को जमीन पर से उठा लिया था और एक बार मुडकर अपने महल की ओर देखा ।

कुंवर अभी वहीं खिडकी में खडा था और सैनिकोंको इशारा कर रहा था कि राजकुमारी को जाने दिया जाय। राजकुमारी का पीछा करने का उसने कोई प्रयत्न नही किया। शायद समझ रहा हो कि उसका कोई फायदा नही। यह इलाका उसके लिए अपरिचित था जब कि राजकुमारी यहाँ का चप्पा चप्पा जानती थी। 

भागते हुए राजकुमारीने मंजूषा मे ही वह पत्र भी छिपा दिया था और अपना रत्नहारभी।इसी नीली चौकटवाले स्तंभके नीचे।................


अपर्णाकी बताई सारी कहानी शेखर को समझ आने लगी।
अतीत पुकार रहा था और उसका आवाहन ताल ठोंककर कुछ ही घंटों की दूरी पर खडा था। केवल कुछ मजदूरोंको बुलाना भर था। और वे इस सब की खुदाई कर लेते। 

शेखर ने देखा अपर्णा थर थर काँप रही थी । वह गिरने लगे इससे पहले शेखर ने उसे थाम लिया। चलो चले यहाँ से । इसके विषयमे बाद मे सोचेंगे।

शेखर, मै जैसे जड हो गई हूँ। मेरे पाँव जकड गये है। आँखोके सामने एक घना अंधेरा है और उसमे दूर दूर तक एक विवर सा बना हुआ है। उससे ठंडी हवा निकलकर मुझे छू रही है। अपनी ओर खींच रही है जैसे मे कोई पत्ता होऊँ।
पगली मेरे होते हुए तुम्हे कोई हवा खींच के नही ले जा सकती। आओं चले। धीरे धीरे चलते हैं। खुदाई की बात कल सोचेंगे। अपर्णा को सहारा देकर शेखर ले तो आया लेकिन इस तरह अचानक से जो अतीत उसके सामने आया उसने शेखर को भी उद्वेलित कर दिया। इसके कोई संदेह नही की अपर्णा ने सपनेके जिस शिवपालकी बात की वह शेखर ही था, पूर्वजन्म का शिवपाल - यदि पूर्वजन्म होता हो तब ।

और वह पूर्व जन्म का शिवपाल राजकुमारी अपर्णा के भाई का हत्यारा, उनका राज्य लूटने वाला पडोसी देश का शासक था। शेखर ने अपने माथे से पसीना पोंछा। क्या कारण है कि जो पुनर्जन्म अपर्णा की स्मृति मे इतना सुस्पष्ट है , शेखर को उसका आभास तक नही।

हौले हौले थपकियाँ देकर उसने अपर्णा को सुला तो दिया लेकिन खुद नही सो सका। सारी रात नीले पत्थर के स्तंभ के विषय मे सोचते सोचते ही गुजर गई।
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अपर्णा का चेहरा विवर्ण हो रहा था। शेखर ठिठक गया। उसने अपर्णा को अपनी ओर खींच कर सहारा दिया। 'क्या यही वह समाधी है ?' अपर्णा बस किसी तरह सर हिला सकी।
शेखर को अपर्णा का स्वप्न याद आया। जब राजकुमारी अपर्णा भाग रही थी तो इसी जगह आ पहुँची थी जहाँ नागेश बाबा की समाधी बन रही थी और लोग अपनी अपनी तरफ से भेंट वस्तुएँ रख रहे थे। उसी में अपर्णा ने अपनी गहनों की मंजूषा रख्खी थी और उसमें था राजकुमार चंद्रपाल का पत्र।
किस काल की बात थी यह ? कितने सैकड़ों वर्ष पुरानी ? क्या समाधी को तोड फोड कर देखा जाये ? हो सकता है उसमें वह मंजूषा न हो। या यदि है भी तो उसमें वह पत्र नही हो। और यदि हो भी तो क्या वह पढा जाने की स्थिति में होगा ? उसकी लिपि क्या होगी ? और उसमें क्या लिखा होगा ?

हौले से शेखर ने अपर्णा का कंधा दबाया और संकेत किया कि चलें। दोनों चलकर अपने होटल के कमरे में वापस आये।
क्या कहती हो ? निर्णय मैं पूर्ण रूप से तुम पर छोड़ता हूँ।क्या खुदवाई करूँ ? एक आर्किटेक्ट होने के नाते यह मेरी जिज्ञासा है। यदि वह समाधी मिली है, वह एकाकी पठार भी, तो यह संभव है कि तुम्हारा सपना सच हो, कोई पिछला जन्म रहा हो, तुम्हारा भी और मेरा भी। उस जन्म का मेरा रूप तुम देख चुकी हो। मैं तब तुम्हारा दुश्मन था। वह पत्र क्या था, शायद उसमें कुछ लिखा हो। एक दूसरा पहलू भी है।यदि समाधीमें वह मंदूषा निकलती है तो पुनर्जन्मके होनेका वह एक बहुत बडा प्रमाण होगा -- सोचो तुम अपने शोधकार्यके लिये इस विषय को ले सकती हो।

आगे हर बातका का निर्णय तुम्हारे हाथ है।
अपर्णा का चेहरा किसी निश्चय की दृढता से जगमगा रहा थ। 'नही शेखर, समाधी को वैसे ही रहने दो। मैंने सोच लिया है। यदि पुनर्जन्म होता भी हो तो भी वह अतीत हो चुका है। तब मेरी तुमसे दुश्मनी थी या मैत्री इस पर मेरा आज का जीवन क्यों निर्भर रहे ? आज मैं इस जन्म की बात करना चाहती हूँ। मेरा फैसला हो चुका है। अतीत को अनजाना ही रहने दो। हो सकता है तब मैं तुम्हारी दुश्मन रही हूँ। लेकिन आज का सच यह है कि हम एक दूसरे से प्यार करते हैं। आज के सच को अतीत की किसी घटना के कारण विषाक्त करने की जरूरत नही है। समाधी वैसी ही रहेगी अनछुई। आओ हम भविष्य की ओर देखें।
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जयपूर स्टेशन छोडकर गाडी काफी आगे आ चुकी थी यारे प्रवासी अपने अपने सामान को यथास्थान रखकर निश्चिंत हो चुके थे । पत्र-पत्रिकाएँ खोलकर लोग मनोयोग से उन्हें पढनेमें जुट गये थे। 








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